कविता संग्रह >> कामायनी कामायनीजयशंकर प्रसाद
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अग्निकीट समान जलती है
भरी उत्साह,
और जीवित है, न छाले हैं
न उसमें दाह!
कौन हो तुम
विश्व-माया-कुहक-सी साकार,
प्राण-सत्ता के मनोहर
भेद-सी सुकुमार!
हृदय जिसकी कांत छाया में
लिये निश्वास,
थके पथिक समान करता व्यजन
ग्लानि विनाश।''
श्याम-नभ में मधु-किरण-सा
फिर वही मृदु हास,
सिंधु की हिलकोर दक्षिण
का समीर-विलास!
कुंज में गुंजरित कोई
मुकुल सा अव्यक्त-
लगा कहने अतिथि, मनु थे
सुन रहे अनुरक्त-
''यह अतृप्ति अधीर मन की,
क्षोभयुत उन्माद,
सखे! तुमुल-तरंग-सा
उच्छ्वासमय संवाद।
मत कहो, पूछो न कुछ, देखो
न कैसी मौन,
विकल राका-मूर्ति बनकर
स्तब्ध बैठा कौन!
विभव मतवाली प्रकृति का
आवरण वह नील,
शिथिल है, जिस पर बिखरता
प्रचुर मंगल खील,
राशि-राशि नखत-कुसुम की
अर्चना अश्रांत
बिखरती है, तामरस सुंदर
चरण के प्रांत।''
मनु निखरने लगे
ज्यों-ज्यों यामिनी का रूप,
वह अनन्त प्रगाढ़ छाया
फैलती अपरूप,
बरसता था मदिर कण-सा
स्वच्छ सतत अनंत,
मिलन का संगीत होने लगा
था श्रीमंत।
छूटती चिनगारियां
उत्तेजना उद्भ्रांत।
धधकती ज्वाला मधुर, था
वक्ष विकल अशांत।
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