कविता संग्रह >> कामायनी कामायनीजयशंकर प्रसाद
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वातचक्र समान कुछ था
बांधता आवेश,
धैर्य का कुछ भी न मनु के
हृदय में था लेश।
कर पकड़ उन्मत्त से हो लगे
कहने, ''आज,
देखता हूं दूसरा कुछ
मधुरिमामय साज!
वही छवि! हां वही जैसे!
किन्तु क्या यह भूल?
रही विस्मृति-सिंधु में
स्मृति-नाव विकल अकूल!
जन्म-संगिनि एक थी जो
कामबाला नाम-
मधुर श्रद्धा था, हमारे
प्राण को विश्राम-
सतत मिलता था उसी से, अरे
जिसको फूल,
दिया करते अर्ध में मकरंद
सुषमा-मूल।
प्रलय में भी बच रहे हम
फिर मिलन का मोद
रहा मिलने को बचा, सूने
जगत की गोद!
ज्योत्स्ना-सी निकल आई!
पार कर नीहार,
प्रणय-विधु है खड़ा नभ मैं
लिए तारक हार!
कुटिल कुन्तल से बनाती
कालमाया जाल-
नीलिमा से नयन की रचती
तमिस्त्रा माल।
नींद-सी दुर्भेद्य तम की,
फेंकती यह दृष्टि,
स्वप्न-सी है बिखर जाती
हंसी की चल-सृष्टि।
हुई केन्द्रीभूत-सी है
साधना की स्फूर्ति,
दृढ़-सकल सुकुमारता में
रम्य नारी-मूर्त्ति।
दिवाकर दिन या परिश्रम का
विकल विश्रांत
मैं पुरुष, शिशु-सा भटकता
आज तक था भ्रांत।
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