कविता संग्रह >> कामायनी कामायनीजयशंकर प्रसाद
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इस दुखमय जीवन का प्रकाश
नभ-नील लता की डालों में
उलझा अपने सुख से हताश!
कलियां जिनको मैं समझ रहा
वे कांटे बिखरे आस-पास,
कितना बीहड़-पथ चला और पड़
रहा कहीं थक कर नितांत,
उन्मुक्त शिखर हंसते मुझ
पर-रोता मैं निर्वासित अशांत।
इस नियति-नटी के अति भीषण
अभिनय की छाया नाच नहीं
खोखली शून्यता में
प्रतिपद-असफलता अधिक कुलांच रही।
पावस-रजनी में जुगुनू गण
को दौड़ पकड़ता मैं निराश,
उन ज्योति कणों का कर
विनाश!
जीवन-निशीथ के अंधकार!
तू, नील तुहिन-जल-निधि बन
कर फैला है कितना वार-पार
कितनी चेतनता की किरणें
हैं डूब रहीं ये निर्विकार।
कितना मादक तम, निखिल
भुवन भर रहा भूमिका में अभंग!
तू, मूर्तिमान हो छिप
जाता प्रतिफल के परिवर्तन अनंग।
ममता की क्षीण अरुण रेखा
खिलती है तुझमें ज्योति-कला
जैसे सुहागिनी की उर्मिल
अलकों में कुंकुमचूर्ण भला।
रे चिरनिवास विश्राम
प्राण के मोह-जलद-छाया उदार,
मायारानी के केशभार!
जीवन-निशीथ के अंधकार!
तू घूम रहा अभिलाषा के नव
ज्वलन-धूम-सा दुर्निवार
जिसमें अपूर्ण-लालसा,
चिनगारी-सी उठती पुकार।
यौवन मधुवन की कालिंदी बह
रही चूम कर सब दिगंत,
मन-शिशु की क्रीड़ा
नौकायें बस दौड़ लगाती है अनंत।
कुहूकिनि अपलक दृग के
अंजन! हंसती तुझमें सुंदर छलना,
धूमिल रेखाओं से सजीव
चंचल मित्रों की नव-कलना।
इस चिर प्रवास श्यामल पथ
में छायी पिक प्राणों की पुकार-
वन नीत प्रतिध्वनि नभ
अपार!
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