कविता संग्रह >> कामायनी कामायनीजयशंकर प्रसाद
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यह उजड़ा सूना नगर-प्रांत
जिसमें सुख-दुख की
परिभाषा विध्वस्त शिल्प-सी हो नितांत,
निज विकृत वक्र रेखाओं
से, प्राणी का भाग्य बनी अशांत।
कितनी सुखमय स्मृतियां,
अपूर्ण रुचि बन कर मंडराती विकीर्ण,
इन ढेरों में दुखभरी
कुरुचि दब रही अभी बन पत्र जीर्ण।
आती दुलार को हिचकी-सी
सूने कोनों में कसक भरी,
इस सूखे तरु पर मनोवृति
आकाश-बेलि सी रही हरी।
जीवन-समाधि के खंडहर पर
जो जल उठते दीपक अशांत,
फिर बुझ जाते वे स्वयं
शांत।
यों सोच रहे मनु पडे
श्रांत
श्रद्धा का सुख साधन
निवास जब छोड़ चले आये प्रशांत,
पथ-पथ में भटक अटकते वे
आये इस ऊजड़ नगर-प्रांत।
बहती सरस्वती बेग भरी
निस्तब्ध हो रही निशा श्याम,
नक्षत्र निरखते निर्निमेष
वसुधा को वह गति विकल वाम।
वृत्रघ्नी का वह जनाकीर्ण
उपकूल आज कितना सूना,
देवेश इंद्र की विजय-कथा
की स्मृति देती थी दुख दूना।
वह पवन सारस्वत प्रदेश
दुःस्वप्न देखता पड़ा क्लांत,
फैला था चारों ओर ध्वांत।
''जीवन का लेकर नव विचार
जब चला द्वंद्व था असुरों
में प्राणों की पूजा का प्रचार,
उस ओर आत्मविश्वास-निरत
सुर-वर्ग कह रहा था पुकार-
'मैं स्वयं सतत आराध्य
आत्म-मंगल-उपासना में विभोर,
उल्लासशील मैं
शक्ति-केंद्र, किसकी खोजूं फिर शरण और।
आनंद-उच्छलित-शक्ति-स्रोत
जीवन-विकास वैचित्र्य भरा,
अपना नव-नव निर्माण किये
रखता यह विश्व सदैव हरा।
प्राणों के सुख साधन में
ही, संलग्न असुर करते सुधार,
नियमों में बधंते
दुर्निवार।
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