कविता संग्रह >> कामायनी कामायनीजयशंकर प्रसाद
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करती सरस्वती मधुर नाद
बहती थी श्यामल घाटी में
निर्लिप्त भाव सी अप्रमाद,
सब उपल उपेक्षित पड़े रहे
जैसे वे निष्ठुर जड़ विषाद।
वह थी प्रसन्नता की धारा
जिसमें था केवल मधुर गान
थी कर्म-निरंतरता-प्रतीक
चलता था स्ववश अनंत-ज्ञान।
हिम-शीतल लहरों का रह-रह
कूलों से टकराते जाना,
आलोक अरुण किरणों का उन
पर अपनी छाया बिखराना-
अद्भुत था!
जिन-निर्मित-पथ का वह पथिक चल रहा निर्विवाद
कहता जाता कुछ सुसंवाद।
प्राची में फैला मधुर राग
जिसके मंडल में एक कमल
खिल उठा सुनहला भर पराग,
जिसके परिमल से व्याकुल
हो श्यामल कलरव सब उठे जाग।
आलोक-रश्मि से चुने
उषा-अंचल में आंदोलन अमंद,
करता प्रभात का मधुर पवन
सब ओर वितरने को मरंद।
उस रम्य फलक पर नवल
चित्र-सी प्रकट हुई सुंदर बाला,
वह नयन-महोत्सव की प्रतीक
अम्लान-नलिन की नव-माला।
सुषमा का मंडल सुस्मित-सा
बिखराता संसृति पर सुराग
सोया जीवन का तम विराग।
बिखरी अलकें ज्यों तर्क
जाल-
वह विश्व मुकुट सा
उज्ज्वलतम शशिखंड सदृश था स्पष्ट भाल,
दो पद्म-पलाश चषक-से दृग
लेते अनुराग विराग ढाल।
गुंजरित मधुप से मुकुल
सदृश वह आनन जिसमें भरा गान,
वक्षस्थल पर एकत्र धरे
संसृति के सब विज्ञान-ज्ञान।
था एक हाथ में कर्म-कलश
वसुधा-जीवन-रस-सार लिये,
दूसरा विचारों के नभ को
था मधुर अभय अवलंब दिये।
त्रिवली थी
त्रिगुण-तरंगमयी, आलोग-वसन लिपटा अराल
चरणों में थी गति भरी ताल।
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