कविता संग्रह >> कामायनी कामायनीजयशंकर प्रसाद
|
9 पाठकों को प्रिय 92 पाठक हैं |
विस्मृत हों वे बीती
बातें, अब जिनमें कुछ सार नहीं,
वह जलती छाती न रही अब
वैसा शीतन प्यार नहीं!
सब अतीत में लीन हो चलीं,
आशा, मधु-अभिलाषायें,
प्रिय की निष्ठुर विजय
हुई, पर यह तो मेरी हार नहीं!
वे आलिंगन एक पाश थे,
स्मिति चपला थी आज कहां?
और मधुर विश्वास! अरे वह
पागल मन का मोह रहा,
वंचित जीवन बना समर्पण यह
अभिमान अकिंचन का,
कभी दे दिया था कुछ
मैंने, ऐसा अब अनुमान रहा।
विनिमय प्राणों का यह
कितना भयसंकुल व्यापार अरे!
देना हो जितना दे दे तू,
लेना! कोई यह न करे!
परिवर्तन की तुच्छ
प्रतीक्षा पूरी कभी न हो सकती,
संध्या रवि देकर पाती है
इधर-उधर उडुगन बिखरे!
वे कुछ दिन जो हंसते आये
अंतरिक्ष अरुणाचल से
फूलों की भरमार स्वर का
कूजन लिये कुहक बल से।
फैल गयी जब स्मिति की
माया, किरन-कली की क्रीड़ा से,
चिर-प्रवास में चले गये
वे आने को कहकर छल से!
जब शिरीष की मधुर गंध से
मान-भरी मधुऋतु रातें,
रूठ चली जातीं
रक्तिम-मुख, न सह जागरण की घातें।
दिवस मधुर आलाप कथा-सा
कहता छा जाता नभ में,
वे जगते-सपने अपने तब
तारा बन कर मुस्काते।
वन बालाओं के निकुंज सब
भरे वेणु के मधु स्वर से,
लौट चुके ये आने वाले सुन
पुकार अपने घर से,
किंतु न आया वह परदेसी -
युग छिप गया प्रतीक्षा में
रजनी की भीगी पलकों से
तुहिन बिंदु कण-कण बरसे!
|