कविता संग्रह >> कामायनी कामायनीजयशंकर प्रसाद
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मानस का स्मृति-शतदल
खिलता, झरते बिंदु मरंद घने
मोती कठिन पारदर्शी ये,
इनमें कितने चित्र बने!
आंसू सरल तरल विद्युत्कण,
नयनालोक विरह नम में
प्राण पथिक यह संबल लेकर
लगा कल्पना-जग रचने।
अरुण जलज के शोण कोण थे
नव तुषार के बिंदु भरे,
मुकुर चूर्ण बन रहे,
प्रतिच्छवि कितनी साथ लिये बिखरे!
वह अनुराग हंसी दुलार की
पंक्ति चली सोने तम में,
वर्षा-विरह-कुहू में जलते
स्मृति के जुगुनू डरे-डरे।
सूने गिरि-पथ में
गुंजारित श्रृंगनाद की ध्वनि चलती,
आकांक्षा लहरी दुख-तटिनी
पुलिन अंक में थी ढलती।
जले दीप नभ के,
अभिलाषा-शलभ उड़े, उस ओर चले,
भरा रह गया आंखों में जल,
बुझी न वह ज्वाला जलती।
''मां'' - फिर एक किलक
दूरागत, गूंज उठी कुटिया सूनी,
मां उठ दौड़ी भरे हृदय में
लेकर उत्कंठा दूनी।
लुटरी खुली अलक, रज-धूसर
बांहें आकर लिपट गयीं,
निशा-तापसी की जलने की
धधक उठी बुझती धूनी!
''कहां रहा नटखट तू फिरता
अब तक मेरा भाग्य बना!
अरे पिता के प्रतिनिधि!
तूने भी सुख-दुख तो दिया घना,
चंचल तू, बनकर-मृग बन कर
भरता है चौकड़ी कहीं,
मैं डरती तू रूठ न जाये
करती कैसे तुझे मना!''
''मैं रूठूं मां और मना
तू, कितनी अच्छी बात कही!
ले मैं सोता हूं अब जाकर,
बोलूंगा मैं आज नहीं,
पके फलों से पेट भरा है
नींद नहीं खुलने वाली।''
श्रद्धा चुंबन ले प्रसन्न
कुछ-कुछ विषाद से भरी रही।
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