कविता संग्रह >> कामायनी कामायनीजयशंकर प्रसाद
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उधर धातु गलते, बनते हैं
आभूषण औ, अस्त्र नये,
कहीं साहसी से आते हैं
मृगया के उपहार नये,
पुष्पलावियां चुनती हैं
बन-कुसुमों की अध-विकच कली,
गंध चूर्ण था लोध्र कुसुम
रज, जुटे नवीन प्रसाधन ये।
घन के आघातों से होती जो
प्रचंड ध्वनि कोष भरी,
तो रमणी के मधुर कंठ से
हृदय मूर्च्छना उधर ढरी,
अपने वर्ग बना कर श्रम का
करते सभी उपाय वहां,
उनकी मिलित-प्रयत्न-प्रथा
से पुर की श्री दिखती निखरी।
देश काल का लाघव करते वे
प्राणी चंचल से हैं,
सुख-साधन एकत्र कर रहे जो
उनके संबल में हैं,
बढ़े ज्ञान-व्यवसाय,
परिश्रम बल की विस्तृत छाया में,
नर-प्रयत्न से ऊपर आवे जो
कुछ वसुधा तल में हैं,
सृष्टि-बीज अंकुरित,
प्रफुल्लित, सफल हो रहा हरा भरा,
प्रलय बीच भी रक्षित मनु
से वह फैला उत्साह भरा,
आज स्वचेतन-प्राणी अपनी
कुशल कल्पनायें करके,
स्वावलंब की दृढ़ धरणी पर
खड़ा, नहीं अब रहा डरा।
श्रद्धा उस आश्चर्य-लोक
में मलय-बालिका-सी चलती,
सिंहद्वार के भीतर
पहुंची, खड़े प्रहरियों को छलती,
ऊंचे स्तंभों पर वलभी-युत
बने रम्य प्रासाद वहां,
धूप-धूप सुरभित-गृह,
जिनमें थी आलोक-शिखा जलती।
स्वर्ण-कलश-शोभित भवनों
से लगे हुए उद्यान बने,
ऋजु-प्रशस्त, पथ बीच-बीच
में, कहीं लता के कुंज घने,
जिन में दंपति समुद
विहरते, प्यार भरे दे गलबाहीं,
गूंज रहे थे मधुप रसीले,
मदिरा-मोद पराग सने।
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