कविता संग्रह >> कामायनी कामायनीजयशंकर प्रसाद
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जल उठते हैं लघु जीवन के
मधुर-मधुर वे पल हलके
मुक्त उदास गगन के उर में
छाले बन जा झलके।
दिवा-श्रांत-आलोक-रश्मियां
नील-निलय में छिपी कहीं
करुण वही स्वर फिर उस
संसृति में बह जाता है गल के।
प्रणय किरण का कोमल बंधन
मुक्ति बना बढ़ता जाता दूर,
किंतु कितना प्रतिपल वह
हृदय समीप हुआ जाता!
मधुर चांदनी-सी तंद्रा जब
कैसी मूर्च्छित मानस पर
तब अभिन्न प्रेमास्पद
उसमें अपना चित्र बना जाता।
कामायनी सकल अपना मुख
स्वप्न बना-सा देख रही,
युग-युग की वह विकल
प्रतारित मिटी हुई बन लेख रही-
जो कुसुमों के कोमल दल से
कभी पवन पर अंकित था,
आज पपीहा की पुकार बन -
नभ में खिंचती रेख रही।
इड़ा अग्नि ज्वाला-सी आगे
जलती है उल्लास भरी,
मनु का पथ आलोकित करती
विषाद-नदी में बनी तरी,
उन्नति का आरोहण, महिमा
शैल-श्रृंग सी श्रांति नहीं,
तीव्र प्रेरणा की धारा सी
बही वहां उत्साह भरी।
वह सुंदर आलोक किरण सी
हृदय भेदिनी दृष्टि लिये,
जिधर देखती- खुल जाते हैं
तम ने जो पथ बंद किये।
मनु की सतत सफलता की वह
उदय विजयिनी तारा थी
आश्रम की भूखी जनता ने
निज श्रम के उपहार दिये!
मनु का नगर बसा है सुंदर
सहयोगी हैं सभी बने,
दृढ़ प्राचीरों में मंदिर
के द्वार दिखाई पड़े घने,
वर्षा धूप शिशिर में छाया
के साधन संपन्न हुये,
खेतों में हैं कृषक चलाते
हल प्रमुदित श्रम-स्वेद सने।
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