कविता संग्रह >> कामायनी कामायनीजयशंकर प्रसाद
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देखा उसने, जनता व्याकुल
राजद्वार कर रुद्ध रही,
प्रहरी के दल भी झुक आये
उनके भाव विशुद्ध नहीं,
नियमन एक झुकाव दबा-सा,
टूटे या ऊपर उठ जाय!
प्रजा आज कुछ और सोचती अब
तक जो अविरुद्ध रही!
कोलाहल में घिर, छिप
बैठे, मनु कुछ सोच विचार भरे,
द्वार बंद लखि प्रजा
त्रस्त-सी, कैसे मन फिर धैर्य धरे!
शक्ति-तरंगों में आंदोलन,
रुद्ध-क्रोध भीषणतम था,
महानील-मोहित-ज्वाला का
नृत्य सभी से उधर परे।
वह विज्ञानमयी अभिलाषा,
पंख लगाकर उड़ने की,
जीवन की असीम आशायें कभी
न नीचे मुड़ने की,
अधिकारों की सृष्टि और
उनकी वह मोहमयी माया,
वर्गों की खाई बन फैली
कभी नहीं जो जुड़ने की।
असफल मनु कुछ क्षुब्ध हो
उठे, आकस्मिक बाधा कैसी-
समझ न पाये कि यह हुआ
क्या, प्रजा जुटी क्यों आ ऐसी!
परित्राण प्रार्थना विकल
थी देव-क्रोध से बन विद्रोह,
इड़ा रही जब वहां! स्पष्ट
ही वह घटना कुचक्र जैसी।
''द्वार बंद कर दो इनको
तो अब न यहां आने देना,
प्रकृति आज उत्पात कर
रही, मुझको बस सोने देना!''
कह कर यों मनु प्रकट
क्रोध में, किंतु डरे-से थे मन में,
शयन-कक्ष में चले सोचते
जीवन का लेना-देना।
श्रद्धा कांप उठी सपने
में, सहसा उसकी आंख खुली,
यह क्या देखा मैंने? कैसे
वह इतना हो गया छली?
स्वजन-स्नेह में भय की
कितनी आशंकायें उठ आतीं,
अब क्या होगा, इसी सोच
में व्याकुल रजनी बीत चली।
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