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कामायनी

जयशंकर प्रसाद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :177
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9700
आईएसबीएन :9781613014295

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पंचभूत का भैरव मिश्रण, शंपाओं के शकल-निपात,
उल्का लेकर अमर शक्तियां खोज रहीं ज्यों खोया प्रात।

बार-बार उस भीषण रव से कंपती धरती देख विशेष,
मानो नील व्योम उतरा हो आलिंगन के हेतु अशेष।

उधर गरजती सिंधु लहरियां कुटिल काल के जालों सी,
चली आ रहीं फेन उगलती फन फैलाये व्यालों-सी।

धंसती धरा, धधकती ज्वाला, ज्वाला-मुखियों के निश्वास,
और संकुचित क्रमश: उसके अवयव का होता था ह्रास।

सबल तरंगाघातों से उस क्रुद्ध सिंधु के, विचलित-सी-
व्यस्त महाकच्छप-सी धरणी ऊभ-चूभ थी विकलित-सी।

बढ़ने लगा विलास-वेग-सा वह अति भैरव जल-संधग़त,
तरल-तिमिर से प्रलय-पवन का होता आलिंगन, प्रतिघात।

बेला क्षण-क्षण निकट आ रही क्षतिज क्षीण, फिर लीन हुआ,
उदधि डुबाकर अखिल धारा को बस मर्यादा-हीन हुआ!
पंच भूत का यह तांडवमय नृत्य हो रहा था कब का।''

''एक नाव थी, और न उसमें डांडे लगते, या पतवार,
तरल तरंगो में उठ-गिरकर बहती पगली बारंबार।

लगते प्रबल थपेड़े, धुंधले तट का था कुछ पता नहीं,
कातरता से भरी निराशा देख नियति पथ बनी वहीं।

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