कविता संग्रह >> कामायनी कामायनीजयशंकर प्रसाद
|
9 पाठकों को प्रिय 92 पाठक हैं |
यह छल चलने में अब पंगु
हुआ सा समझो,
मुझको भी अब मुक्त जाल से
अपने समझो।
शासन की यह प्रगति सहज ही
अभी रुकेगी,
क्योंकि दासता मुझसे अब
तो हो न सकेगी।
मैं शासक, मैं चिर
स्वतंत्र, तुम पर भी मेरा-
हो अधिकार असीम, सफल हो
जीवन मेरा।
छिन्न-भिन्न अन्यथा हुई
जाती है पल में,
सकल व्यवस्था अभी जाय
डूबती अतल में।
देख रहा हूं वसुधा का
अति-भय-से कंपन,
और सुन रहा हूं नभ का यह
निर्मम-क्रंदन!
किंतु आज तुम बंदी हो
मेरी बांहों में,
मेरी छाती में'' -फिर सब
डूबा आहों में!
सिंहद्वार अरराया जनता
भीतर आयी,
''मेरी रानी'' उसने जो
चीत्कार मचायी।
अपनी दुर्बलता में मनु तब
हांफ रहे थे,
स्खलन विकंपित पद वे अब
भी कांप रहे थे।
सजग हुए मनु वज्र-खचित ले
राजदंड तब,
और पुकारा ''तो सुन लो जो
कहता हूं अब।''
''तुम्हें तृप्तिकर सुख
के साधन सकल बताया,
मैंने ही श्रम-भाग किया
फिर वर्ग बनाया।
|