कविता संग्रह >> कामायनी कामायनीजयशंकर प्रसाद
|
9 पाठकों को प्रिय 92 पाठक हैं |
यों कह मनु ने अपना भीषण
अस्त्र सम्हाला,
देव 'आग' ने उगली त्योंही
अपनी ज्वाला।
छूट चले नाराच धनुष से
तीक्ष्ण नुकीले,
टूट रहे नव-धूमकेतु अति
नीले-पीले।
अंधड़ था बढ़ रहा, प्रजा दल
सा झुंझलाता,
रण वर्षा में शस्त्रों-सा
बिजली चमकाता।
किंतु क्रूर मनु वारण
करते उन वाणों को
बढ़े कुचलते हुए खड्ग से
जन-प्राणों को।
तांडव में थी तीव्र
प्रगति, परमाणु विकल थे
नियति विकर्षणमयी, त्रास
से सब व्याकुल थे।
मनु फिर रहे अलात-चक्र से
उस घन-तम में,
वह रक्तिम-उन्माद नाचता
कर निर्मम में।
उठ तुमुल रण-नाद, भयानक
हुई अवस्था,
गढ़ा विपक्ष समूह मौन
पददलित व्यवस्था।
आहत पीछे हटे, स्तंभ से
टिककर मनु ने,
श्वास लिया, टंकार किया
दुर्लक्ष्यी धनु ते।
बहते विकट अधीर विषम
उंचास-वात थे,
मरण-पर्व था, नेता आकुलि
औ किलात थे।
ललकारा, ''बस अब इसको मत
जाने देना''
किंतु सजग मनु पहुंच गये
वह ''लेना लेना''।
''कायर, तुम दोनों ने ही
उत्पात मचाया,
अरे, समझकर जिनको अपना था
अपनाया''
तो फिर आओ देखो कैसी होती
है बलि,
रण यह यज्ञ, पुरोहित ओ!
किलात औ आकुलि।
|