कविता संग्रह >> कामायनी कामायनीजयशंकर प्रसाद
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और धराशायी थे
असुर-पुरोहित उस क्षण,
इड़ा अभी कहती जाती थी
''बस रोको रण।
भीषण जन-संहार आप ही तो
होता है,
ओ पागल प्राणी तू क्यों
जीवन खोता है!
क्यों इतना आतंक ठहर जा आ
गर्वीले,
जीने दे सबको फिर तू भी
सुख से जी ले।''
किंतु सुन रहा कौन! धधकती
वेदी ज्वाला,
सामूहिक बलि का निकला था
पंथ निराला।
रक्तोन्मद मनु का न हाथ
अब भी रुकता था,
प्रजा-पक्ष का भी न किंतु
साहस झुकता था।
वहीं धर्षिता खड़ी इड़ा
सारस्वत-रानी,
वे प्रतिशोध अधीर, रक्त
बहता बन पानी।
धूमकेतु-सा चला
रुद्र-नाराज भयंकर,
लिये पूंछ में ज्वाला
अपनी अति प्रलयंकर।
अंतरिक्ष में महाशक्ति
हुंकार कर उठी
सब शास्त्रों की धारें
भीषण वेग भर उठीं।
और गिरी मनु पर, मुगूर्ष
वे गिरे वहीं पर,
रक्त नदी की बाढ़-फैलती थी
उस भू पर ।
फिर क्यों न तर्क को
शस्त्रों से वे सिद्ध करें क्यों हो न युद्ध
उनका संघर्ष चला अशांत वे
भाव रहे अब तक विरुद्ध।
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