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उपन्यास >> कंकाल कंकालजयशंकर प्रसाद
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371 पाठक हैं |
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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
'बाथम ने
देखा कि वह स्वतन्त्र युवती तनकर खड़ी हो गयी। उसकी नसें फूल रही थीं। इसी
समय लतिका ने वहाँ पहुँचकर एक काण्ड उपस्थित कर दिया। उसने बाथम की ओर
तीक्ष्ण दृष्टि से देखते हुए पूछा, 'तुम्हारा क्या अभिप्राय था?'
सहसा आक्रान्त होकर बाथम
ने कहा, 'कुछ नहीं। मैं चाहता था कि यह ईसाई होकर अपनी रक्षा कर लें,
क्योंकि इसके...'
बात काटकर लतिका ने कहा,
'और यदि मैं हिन्दू हो जाऊँ?'
बाथम ने फँसे हुए गले से
कहा, 'दोनों हो सकते हैं। पर तुम मुझे क्षमा करोगी लतिका?'
बाथम के चले जाने पर
लतिका ने देखा कि अकस्मात् अन्धड़ के समान यह बातों का झोंका आया और निकल
गया।
घण्टी
रो रही थी। लतिका उसके आँसू पूछती थी। बाथम के हाथ की हीरे की अँगूठी सहसा
घण्टी की उँगलियों में लतिका ने देखी, वह चौंक उठी। लतिका का कोमल हृदय
कठोर कल्पनाओं से भर गया। वह उसे छोड़कर चली गयी।
चाँदनी निकलने
पर घण्टी आपे में आयी। अब उसकी निस्सहाय अवस्था स्पष्ट हो गयी। वृंदावन की
गलियों में यों ही फिरने वाली घण्टी कई महीनों की निश्चित जीवनचर्या में
एक नागरिक महिला बन गयी थी। उसके रहन-सहन बदल गये थे। हाँ, एक बात और उसके
मन में खटकने लगी थी- वह अन्धे की कथा। क्या सचमुच उसकी माँ जीवित है उसका
मुक्त हृदय चिंताओं की उमस वाली संध्या में पवन के समान निरुद्ध हो उठा।
वह निरीह बालिका के समान फूट-फूटकर रोने लगी।
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