उपन्यास >> कंकाल कंकालजयशंकर प्रसाद
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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
सरला ने आकर उसे
पुकारा, 'घण्टी क्या यहीं बैठी रहोगी उसने सिर नीचा किए हुए उत्तर दिया,
'अभी आती हूँ।' सरला चली गयी। कुछ काल तक वह बैठी रही, फिर उसी पत्थर पर
अपने पैर समेटकर वह लेट गयी। उसकी इच्छा हुई- आज ही यह घर छोड़ दे। पर वह
वैसा नहीं कर सकी। विजय को एक बार अपनी मनोव्यथा सुना देने की उसे बड़ी
लालसा थी। वह चिंता करते-करते सो गयी।
विजय अपने चित्रों को
रखकर
आज बहुत दिनों पर मदिरा सेवन कर रहा था। शीशे के एक बड़े गिलास में सोडा
और बरफ से मिली हुई मदिरा सामने मेज से उठाकर वह कभी-कभी दो घूँट पी लेता
है। धीरे-धीरे नशा गहरा हो चला, मुँह पर लाली दौड़ गयी। वह अपनी सफलताओं
से उत्तेजित था। अकस्मात् उठकर बँगले से बाहर आया; बगीचे में टहलने लगा,
घूमता हुआ घण्टी के पास जा पहुँचा। अनाथ-सी घण्टी अपने दुःखों में लिपटी
हुई दोनों हाथों से अपने घुटने लपेटे हुए पड़ी थी। वह दीनता की प्रतिमा
थी। कला वाली आँखों ने चाँदनी रात में यह देखा। वह उसके ऊपर झुक गया। उसे
प्यार करने की इच्छा हुई, किसी वासना से नहीं, वरन् एक सहृदयता से। वह
धीरे-धीरे अपने होंठ उसके कपोल के पास तक ले गया। उसकी गरम साँसों की
अनुभूति घण्टी को हुई। वह पल भर के लिए पुलकित हो गयी, पर आँखें बंद किये
रही। विजय ने प्रमोद से एक दिन उसके रंग डालने के अवसर पर उसका आलिंगन
करके घण्टी के हृदय में नवीन भावों की सृष्टि कर दी थी। वह उसी प्रमोद का
आँख बंद करके आह्वान करने लगी; परन्तु नशे में चूर विजय न जाने क्यों सचेत
हो गया। उसके मुँह से धीरे से निकल पड़ा, 'यमुना!' और वह हटकर खड़ा हो
गया।
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