उपन्यास >> कंकाल कंकालजयशंकर प्रसाद
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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
विजय चिन्तित भाव से लौट
पड़ा। वह घूमते-घूमते बँगले से
बाहर निकल आया और सड़क पर यों ही चलने लगा। आधे घन्टे तक वह चलता गया, फिर
उसी सड़क से लौटने लगा। बड़े-बड़े वृक्षों की छाया ने सड़क पर चाँदनी को
कहीं-कहीं छिपा लिया है। विजय उसी अन्धकार में से चलना चाहता है। यह
चाँदनी से यमुना और अँधेरी से घण्टी की तुलना करता हुआ अपने मन के विनोद
का उपकरण जुटा रहा है। सहसा उसके कानों में कुछ परिचित स्वर सुनाई पड़े।
उसे स्मरण हो आया- उसी इक्के वाले का शब्द। हाँ ठीक है, वही तो है। विजय
ठिठककर खड़ा हो गया। साइकिल पकड़े एक सब-इंस्पेक्टर और साथ में वही ताँगे
वाला, दोनों बातें करते हुए आ रहे है-सब-इस्पेक्टर, 'क्यों नवाब! आजकल कोई
मामला नहीं देते हो?'
ताँगेवाला-'इतने मामले
दिये, मेरी भी खबर आप ने ली?'
सब-इस्पेक्टर-'तो तुम
रुपया चाहते हो न?'
ताँगेवाला-'पर यह इनाम
रुपयों में न होगा!'
सब-इस्पेक्टर-'फिर क्या?'
ताँगेवाला-'रुपया आप ले
लीजिए, मुझे तो वह बुत मिल जाना चाहिए। इतना ही करना होगा।'
सब-इस्पेक्टर-'ओह!
तुमने फिर बड़ी बात छेड़ी, तुम नहीं जानते हो, यह बाथम एक अंग्रेज है और
उसकी उन लोगों पर मेहरबानी है। हाँ, इतना हो सकता है कि तुम उसको अपने
हाथों में कर लो, फिर मैं तुमको फँसने न दूँगा।'
ताँगेवाला- 'यह तो जान
जोखिम का सौदा है।'
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