उपन्यास >> कंकाल कंकालजयशंकर प्रसाद
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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
विजय का सिर घूमने लगा।
वह चाहता था कि घण्टी अपनी
वक्तृता जहाँ तक सम्भव हो, शीघ्र बन्द कर दे। उसने कहा, 'अब तो प्रभात
होने में विलंब नहीं; चलो कहीं किनारे उतरें और हाथ-मुँह धो लें।'
घण्टी
चुप रही। नाव तट की ओर चली, इसके पहले ही एक-दूसरी नाव भी तीर पर लग चुकी
थी, परन्तु वह निरंजन की थी। निरंजन दूर था, उसने देखा- विजय ही तो है।
अच्छा दूर-दूर रहकर इसे देखना चाहिए, अभी शीघ्रता से काम बिगड़ जायेगा।
विजय
और घण्टी नाव से उतरे। प्रकाश हो चला था। रात की उदासी भरी विदाई ओस के
आँसू बहाने लगी। कृष्णशरण की टेकरी के पास ही वह उतारे का घाट था। वहाँ
केवल एक स्त्री प्रातःस्नान के लिए अभी आयी थी। घण्टी वृक्षों की झुरमुट
में गयी थी कि उसके चिल्लाने का शब्द सुन पड़ा। विजय उधर दौड़ा; परन्तु
घण्टी भागती हुई उधर ही आती दिखाई पड़ी। अब उजेला हो चला था। विजय ने देखा
कि वही ताँगेवाला नवाब उसे पकड़ना चाहता है। विजय ने डाँटकर कहा, 'खड़ा रह
दुष्ट!' नवाब अपने दूसरे साथी के भरोसे विजय पर टूट पड़ा। दोनों में
गुत्थमगुत्था हो गयी। विजय के दोनों पैर उठाकर वह पटकना चाहता था और विजय
ने दाहिने बगल में उसका गला दबा लिया था, दोनों ओर से पूर्ण बल-प्रयोग हो
रहा था कि विजय का पैर उठ जाय कि विजय ने नवाब के गला दबाने वाले दाहिने
हाथ को अपने बाएँ हाथ से और भी दृढ़ता से खींचा। नवाब का दम घुट रहा था,
फिर भी उसने जाँघ में काट खाया; परन्तु पूर्ण क्रोधावेश में विजय को उसकी
वेदना न हुई, वह हाथ की परिधि को नवाब के कण्ठ के लिए यथासम्भव संकीर्ण कर
रहा था। दूसरे ही क्षण में नवाब अचेत होकर गिर पड़ा। विजय अत्यन्त
उत्तेजित था। सहसा किसी ने उसके कंधे में छुरी मारी; पर वह ओछी लगी। चोट
खाकर विजय का मस्तक और भी भड़क उठा, उसने पास ही पड़ा हुआ पत्थर उठाकर
नवाब का सिर कुचल दिया। इससे घंटी चिल्लाती हुई नाव पर भागना चाहती थी कि
किसी ने उससे धीरे से कहा, 'खून हो गया, तुम यहाँ से हट चलो!'
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