उपन्यास >> कंकाल कंकालजयशंकर प्रसाद
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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
'किसने मारा ।
'जिसका इसने अपराध किया।'
'तो वह स्त्री तुम्हीं तो
नहीं हो?'
यमुना चुप रही।
सब-इन्स्पेक्टर ने कहा,
'यह स्वीकार करती है। इसे हिरासत में ले लो।'
यमुना कुछ न बोली। तमाशा
देखने वालों का थोड़े समय के लिए मन बहलाव हो गया।
कृष्णशरण
की टेकरी में हलचल थी। यमुना के सम्बन्ध में अनेक प्रकार की चर्चा हो रही
थी। निरंजन और भण्डारी भी एक मौलसिरी के नीचे चुपचाप बैठे थे। भण्डारी ने
अधिक गंभीरता से कहा, 'पर इस यमुना को मैं पहचान रहा हूँ।'
'क्या?'
'नहीं-नहीं, यह ठीक है,
तारा ही है है ।
'मैंने इसे कितनी बार
काशी में किशोरी के यहाँ देखा और मैं कह सकता हूँ कि यह उसकी दासी यमुना
है; तुम्हारी तारा कदापि नहीं।'
'परन्तु
आप उसको कैसे पहचानते! तारा मेरे घर में उत्पन्न हुई, पली और बढ़ी। कभी
उसका और आपका सामना तो हुआ नहीं, आपकी आज्ञा भी ऐसी ही थी। ग्रहण में वह
भूलकर लखनऊ गयी। वहाँ एक स्वयंसेवक उसे हरद्वार ले जा रहा था, मुझसे राह
में भेंट हुई, मैं रेल से उतर पड़ा। मैं उसे न पहचानूँगा।'
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