उपन्यास >> कंकाल कंकालजयशंकर प्रसाद
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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
विजय ने सुना, अच्छा नहीं
लगता!
ऊँह, यह तो बुरी बात है। हाँ ठीक, तो देखा जायेगा। जीवन सहज में दे देने
की वस्तु नहीं। और तिस पर भी यमुना कहती है-ठीक उसी तरह जैसे पहले दो
खिल्ली पान और खा लेने के लिए, उसने कई बार डाँटने के स्वर में अनुरोध
किया था! तो फिर!...
विजय भयभीत हुआ। मृत्यु
जब तक कल्पना की वस्तु रहती है, तब तक चाहे उसका जितना प्रत्याख्यान कर
लिया जाए; यदि वह सामने हो।
विजय
ने देखा, यमुना ही नहीं, निरंजन भी है, क्या चिन्ता यदि मैं हट जाऊँ! वह
मान गया, निरंजन की नाव पर जा बैठा। निरंजन ने रुपयों की थैली नाव वाले को
दे दी। नाव तेजी से चल पड़ी।
भण्डारी और निरंजन ने आपस
में कुछ
मंत्रणा की, और वे खून- अरे बाप रे! कहते हुए एक और चल पड़े। स्नान करने
वालों का समय हो चला था। कुछ लोग भी आ चले थे। निरंजन और भण्डारी का पता
नहीं। यमुना चुपचाप बैठी रही। वह अपने पिता भण्डारीजी की बात सोच रही थी।
पिता कहकर पुकारने की उसकी इच्छा को किसी ने कुचल दिया। कुछ समय बीतने पर
पुलिस ने आकर यमुना से पूछना आरम्भ किया, 'तुम्हारा नाम क्या है?'
'यमुना!'
'यह कैसे मरा
'इसने एक स्त्री पर
अत्याचार करना चाहा था।'
'फिर
'फिर यह मारा गया।'
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