लोगों की राय

उपन्यास >> कंकाल

कंकाल

जयशंकर प्रसाद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :316
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9701
आईएसबीएन :9781613014301

Like this Hindi book 2 पाठकों को प्रिय

371 पाठक हैं

कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।


'फिर इसको क्या हो गया है, बतला नहीं तो सिर के बाल नोंच डालूँगी।'

सुन्दरी को विश्वास था कि मलका कदापि ऐसा नहीं कर सकती। वह ताली पीटकर हँसने लगी और बोली, 'मैं समझ गयी!'

उत्कण्ठा से मलका ने कहा, 'तो बताती क्यों नहीं?'

'जाऊँ सरकार को बुला लाऊँ, वे ही इसके मरम की बात जानते हैं।'

'सच कह, वे कभी इसे दुलार करते हैं, पुचकारते हैं मुझे तो विश्वास नहीं होता।'

'हाँ।'

'तो मैं ही चलती हूँ, तू इसे उठा ले।'

सुन्दरी ने महीन सोने के तारों से बना हुआ पिंजरा उठा लिया और शबनम आरक्त कपोलों पर श्रम-सीकर पोंछती हुई उसके पीछे-पीछे चली।

उपवन की कुंज गली परिमल से मस्त हो गयी। फूलों ने मकरन्द-पान करने के लिए अधरों-सी पंखड़ियाँ खोलीं। मधुप लड़खड़ाये। मलयानिल सूचना देने के लिए आगे-आगे दौड़ने लगा।

'लोभ! सो भी धन का! ओह कितना सुन्दर सर्प भीतर फुफकार रहा है। कोहनूर का सीसफूल गजमुक्ताओं की एकावली बिना अधूरा है, क्यों वह तो कंगाल थी। वह मेरी कौन है ?

'कोई नहीं सरकार!' कहते हुए सोमदेव ने विचार में बाधा उपस्थित कर दी।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book