उपन्यास >> कंकाल कंकालजयशंकर प्रसाद
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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
'हाँ सोमदेव, मैं भूल कर
रहा था।'
'बहुत-से लोग वेदान्त की
व्याख्या करते हुए ऊपर से देवता बन जाते हैं और भीतर उनके वह नोंच-खसोट
चला करता है, जिसकी सीमा नहीं।'
'वही तो सोमदेव! कंगाल को
सोने में नहला दिया; पर उसका कोई तत्काल फल न हुआ- मैं समझता हूँ वह सुखी
न रह सकी।'
'सोने
की परिभाषा कदाचित् सबके लिए भिन्न-भिन्न हो! कवि कहते हैं- सवेरे की
किरणें सुनहली हैं, राजनीतिक विशारद - सुन्दर राज्य को सुनहला शासन कहते
हैं। प्रणयी यौवन में सुनहरा पानी देखते हैं और माता अपने बच्चे के सुनहले
बालों के गुच्छों पर सोना लुटा देती है। यह कठोर, निर्दय, प्राणहारी पीला
सोना ही तो सोना नहीं है।' सोमदेव ने कहा
'सोमदेव! कठोर परिश्रम
से, लाखों बरस से, नये-नये उपाय से, मनुष्य पृथ्वी से सोना निकाल रहा है,
पर वह भी किसी-न-किसी प्रकार फिर पृथ्वी में जा घुसता है। मैं सोचता हूँ
कि इतना धन क्या होगा! लुटाकर देखूँ?'
'सब तो लुटा दिया, अब कुछ
कोष में है भी?'
'संचित धन अब नहीं रहा।'
'क्या वह सब प्रभात के
झरते हुए ओस की बूँदों में अरुण किरणों की छाया थी और मैंने जीवन का कुछ
सुख भी नहीं लिया!'
'सरकार! सब सुख सबके पास
एक साथ नहीं आते, नहीं तो विधाता को सुख बाँटने में बड़ी बाधा उपस्थित हो
जाती!'
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