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उपन्यास >> कंकाल

कंकाल

जयशंकर प्रसाद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :316
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9701
आईएसबीएन :9781613014301

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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।


'ओह! तुम अपनी मूल्यवान वस्तुओं के साथ मुझे भी सन्दूक में बन्द करना चाहते हो! तुम अपनी सम्पत्ति सहेज लो, मैं अपने को सहेजकर देखूँ!'

मिरजा मर्माहत होकर चले गये।

सादी धोती पहने सारंगी उठाकर हाथ में देते हुए रहमत से शबनम ने कहा, 'चलो बाबा!'

'कहाँ बेटी! अब तो मुझसे यह न हो सकेगा, और तुमने भी कुछ न सीखा-क्या करोगी मलका?'

'नहीं बाबा! शबनम कहो। चलो, जो सीखा है वह गाना तो मुझे भूलेगा नहीं, और भी सिखा देना। अब यहाँ एक पल नहीं ठहर सकती!'

बुड्ढे ने दीर्घ निःश्वास लेकर सारंगी उठायी, वह आगे-आगे चला।

उपवन में आकर शबनम रुक गयी। मधुमास था, चाँदनी रात थी। वह निर्जनता सौरभ-व्याप्त हो रही थी। शबनम ने देखा, ऋतुरानी शिरिस के फूलों की कोमल तूलिका से विराट शून्य में अलक्ष्य चित्र बना रही थी। वह खड़ी न रह सकी, जैसे किसी धक्के से खिड़की बाहर हो गयी।

इस घटना को बारह बरस बीत गये थे, रहमत अपनी कच्ची दालान में बैठा हुआ हुक्का पी रहा था। उसने अपने इकट्ठे किये हुए रुपयों से और भी बीस बीघा खेत ले लिया था। मेरी माँ चावल फटक रही थी और मैं बैठी हुई अपनी गुड़िया खेल रही थी। अभी संध्या नहीं थी। मेरी माँ ने कहा, 'बानो, तू अभी खेलती ही रहेगी, आज तूने कुछ भी नहीं पढ़ा।' रहमत खाँ मेरे नाना ने कहा, 'शबनम, उसे खेल लेने दे बेटी, खेलने के दिन फिर नहीं आते।' मैं यह सुनकर प्रसन्न हो रही थी, कि एक सवार नंगे सिर अपना घोड़ा दौड़ाता हुआ दालान के सामने आ पहुँचा और उसने बड़ी दीनता से कहा, 'मियाँ रात-भर के लिए मुझे जगह दो, मेरे पीछे डाकू लगे हैं!'

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