उपन्यास >> कंकाल कंकालजयशंकर प्रसाद
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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
रहमत ने धुआँ छोड़ते हुए
कहा, 'भई थके हो तो थोड़ी देर ठहर सकते हो, पर डाकुओं से तो तुम्हें हम
बचा नहीं सकते।'
'यही
सही।' कहकर सवार घोड़े से कूद पड़ा। मैं भी बाहर ही थी, कुतूहल से पथिक का
मुँह देखने लगी। बाघ की खाट पर वह हाँफते हुए बैठा। संध्या हो रही थी। तेल
का दीपक लेकर मेरी माँ उस दालान में आयी। वह मुँह फिराये हुए दीपक रखकर
चली गयी। सहसा मेरे बुड्ढे नाना को जैसे पागलपन हो गया, खड़े होकर पथिक को
घूरने लगे। पथिक ने भी देखा और चौंककर पूछा, 'रहमत, यह तुम्हारा ही घर
है?'
'हाँ, मिरजा साहब!'
इतने में एक और मनुष्य
हाँफता
हुआ आ पहुँचा, वह कहने लगा, 'सब उलट-पुलट हो गया। मिरजा आज देहली का
सिंहासन मुगलों के हाथ से बाहर है। फिरंगी की दोहाई है, कोई आशा न रही।'
मिरजा
जमाल मानसिक पीड़ा से तिलमिलाकर उठ खड़े हुए, मुट्ठी बाँधे टहलने लगे और
बुड्ढा रहमत हत्बुद्धि होकर उन्हें देखने लगा। भीतर मेरी माँ यह सब सुन
रही थी, वह बाहर झाँककर देखने लगी। मिरजा की आँखें क्रोध से लाल हो रही
थीं। तलवार की मूठों पर, कभी मूछों पर हाथ चंचल हो रहा था। सहसा वे बैठ
गये और उनकी आँखों से आँसू की धारा बहने लगी। वे बोल उठे, 'मुगलों की
विलासिता ने राज को खा डाला। क्या हम सब बाबर की संतान हैं?' आह!'
मेरी
माँ बाहर चली आयी। रात की अँधेरी बढ़ रही थी। भयभीत होकर यह सब आश्चर्यमय
व्यापार देख रही थी! माँ धीरे-धीरे आकर मिरजा के सामने खड़ी हो गयी और
उनके आँसू पोंछने लगी! उस स्पर्श से मिरजा के शोक की ज्वाला जब शान्त हुई,
तब उन्होंने क्षीण स्वर में कहा, 'शबनम!'
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