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उपन्यास >> कंकाल

कंकाल

जयशंकर प्रसाद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :316
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9701
आईएसबीएन :9781613014301

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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।


वह बड़ा करुणाजनक दृश्य था। मेरे नाना रहमत खाँ ने कहा, 'आओ सोमदेव! हम लोग दूसरी कोठी में चलें। वे दोनों चले गये। मैं बैठी थी, मेरी माँ ने कहा, 'अब शोक करके क्या होगा, धीरज को आपदा में न छोड़ना चाहिए। यह तो मेरा भाग है कि इस समय मैं तुम्हारे सेवा के लिए किसी तरह मिल गयी। अब सब भूल जाना चाहिए। जो दिन बचे हैं, मालिक के नाम पर काट लिए जायेंगे।'

मिरजा ने एक लम्बी साँस लेकर कहा, 'शबनम! मैं एक पागल था, मैंने समझा था, मेरे सुखों का अन्त नहीं, पर आज?'

'कुछ नहीं, कुछ नहीं, मेरे मालिक! सब अच्छा है, सब अच्छा होगा। उसकी दया में सन्देह न करना चाहिए।'

अब मैं भी पास चली आयी थी, मिरजा ने मुझे देखकर संकेत से पूछा। माँ ने कहा, 'इसी दुखिया को छः महीने की पेट में लिए यहाँ आयी थी; और यहीं धूल-मिट्टी में खेलती हुई इतनी बड़ी हुई। मेरे मालिक! तुम्हारे विरह में यही तो मेरी आँखों की ठंडक थी-तुम्हारी निशानी!' मिरजा ने मुझे गले से लगा लिया। माँ ने कहा, 'बेटी! यही तेरे पिता हैं।' मैं न जाने क्यों रोने लगी। हम सब मिलकर बहुत रोये। उस रोने में बड़ा सुख था। समय ने एक साम्राज्य को हाथों में लेकर चूर कर दिया, बिगाड़ दिया, पर उसने एक झोंपड़ी के कोने में एक उजड़ा हुआ स्वर्ग बसा दिया। हम लोगों के दिन सुख से बीतने लगे।'

मिरजा के आ जाने से गाँव-भर में एक आतंक छा गया। मेरे नाना का बुढ़ापा चैन से कटने लगा। सोमनाथ मुझे हिन्दी पढ़ाने लगे, और मैं माता-पिता की गोद में सुख से बढ़ने लगी।

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