उपन्यास >> कंकाल कंकालजयशंकर प्रसाद
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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
मंगल ने सोचा, संसार
कितनी शीघ्रता से मनुष्य को चतुर बना देता है। 'अब तो पूछने का काम ही
नहीं है।'
'क्यों?'
'आवश्यकता ने सब परदा खोल
दिया, तुम मुसलमानी कदापि नहीं हो।'
'परन्तु मैं मुसलमानी
हूँ।'
'हाँ, यही तो एक भयानक
बात है।'
'और यदि न होऊँ ।
'तब की बात तो दूसरी है।'
'अच्छा तो मैं वहीं हूँ,
जिसका आपको भ्रम है।'
'तुम किस प्रकार यहाँ आ
गयी हो?’
'वह बड़ी कथा है।' यह
कहकर गुलेनार ने लम्बी साँस ली, उसकी आँखें आँसू से भर गयीं।
'क्या मैं सुन सकता हूँ ?’
'क्यों नहीं, पर सुनकर
क्या कीजियेगा। अब इतना ही समझ लीजिये कि मैं एक मुसलमानी वेश्या हूँ।'
'नहीं गुलेनार, तुम्हारा
नाम क्या है, सच-सच बताओ।'
'मेरा
नाम तारा है। मैं हरिद्वार की रहने वाली हूँ। अपने पिता के साथ काशी में
ग्रहण नहाने गयी थी। बड़ी कठिनता से मेरा विवाह ठीक हो गया था। काशी से
लौटते हुए मैं एक कुल की स्वामिनी बनती; परन्तु दुर्भाग्य...!' उसकी भरी
आँखों से आँसू गिरने लगे।
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