उपन्यास >> कंकाल कंकालजयशंकर प्रसाद
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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
किशोरी ने पगली से कहा,
'तुम्हें भूख लगी है, कुछ खाओगी?'
पगली
और बालक दोनों ही उनके प्रस्तावों पर सहमत थे; पर बोले नहीं। इतने में
श्रीचन्द्र का पण्डा आ गया और बोला, 'बाबूजी, आप कब से यहाँ फँसे हैं। यह
तो चाची का पालित पुत्र है, क्यो रे मोहन! तू अभी से स्कूल जाने लगा है
चल, तुझे घर पहुँचा दूँ?' वह श्रीचन्द्र की गोद से उसे लेने लगा; परन्तु
मोहन वहाँ से उतरना नहीं चाहता था।
'मैं तुझको कब से खोज रही
हूँ, तू बड़ा दुष्ट है रे!' कहती हुई चाची ने आकर उसे अपनी गोद में ले
लिया। सहसा पगली हँसती हुई भाग चली। वह कह रही थी, 'वह देखो, प्रकाश भागा
जाता है अन्धकार...!' कहकर पगली वेग से दौड़ने लगी थी। कंकड़, पत्थर और
गड्ढों का ध्यान नहीं। अभी थोड़ी दूर वह न जा सकी थी कि उसे ठोकर लगी, वह
गिर पड़ी। गहरी चोट लगने से वह मूर्च्छित-सी हो गयी।
यह दल उसके
पास पहुँचा। श्रीचन्द्र ने पण्डाजी से कहा, 'इसकी सेवा होनी चाहिए, बेचारी
दुखिया है।' पण्डाजी अपने धनी यजमान की प्रत्येक आज्ञा पूरी करने के लिए
प्रस्तुत थे। उन्होने कहा, 'चाची का घर तो पास ही है, वहाँ उसे उठा ले
चलता हूँ। चाची ने मोहन और श्रीचन्द्र के व्यवहार को देखा था, उसे अनेक
आशा थी। उसने कहा, 'हाँ, हाँ, बेचारी को बड़ी चोट लगी है, उतर तो मोहन!'
मोहन को उतारकर वह पण्डाजी की सहायता से पगली को अपने पास के घर में ले
चली। मोहन रोने लगा। श्रीचन्द्र ने कहा, 'ओहो, तुम बड़े रोने हो जी, गाड़ी
लेने न चलोगे?'
'चलूँगा।' चुप होते हुए
मोहन ने कहा।
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