उपन्यास >> कंकाल कंकालजयशंकर प्रसाद
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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
सरला
कहने लगी, 'हे यमुना माता! मंगल का कल्याण करो और उसे जीवित करके गाला को
भी प्राणदान दो! माता, आज की रात बड़ी भयानक है-दुहाई भगवान की।'
वह बैठा हुआ कम्बल वाला
विचलित हो उठा। उसने बड़े गम्भीर स्वर में पूछा, 'क्या मंगलदेव रुग्ण
हैं?'
प्रार्थिनी और व्याकुल
सरला ने कहा, 'हाँ महाराज, यह किसी का बच्चा है, उसके स्नेह का धन है, उसी
की कल्याण-कामना कर रही हूँ।'
'और तुम्हारा नाम सरला
है। तुम ईसाई के घर पहले रहती थीं न?' धीरे स्वर से प्रश्न हुआ।
'हाँ योगिराज! आप तो
अन्तर्यामी हैं।'
उस
व्यक्ति ने टटोलकर कोई वस्तु निकालकर सरला की ओर फेंक दी। सरला ने देखा,
वह एक यंत्र है। उसने कहा, 'बड़ी दया महाराज! तो इसे ले जाकर बाँध दूँगी न।
वह
फिर कुछ न बोला, जैसे समाधि लग गयी हो, सरला ने अधिक छेड़ना उचित न समझा।
मन-ही-मन नमस्कार करती हुई प्रसन्नता से आश्रम की ओर लौट पड़ी।
वह
अपनी कोठरी में आकर उस यंत्र के धागे को पिरोकर मंगल के प्रकोष्ठ के पास
गयी। उसने सुना, कोई कह रहा है, 'बहन गाला, तुम थक गयी होगी, लाओ मैं कुछ
सहायता कर दूँ।'
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