उपन्यास >> कंकाल कंकालजयशंकर प्रसाद
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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
उत्तर मिला, 'नहीं यमुना
बहिन! मैं तो अभी बैठी हुई हूँ, फिर आवश्यकता होगी तो बुलाऊँगी।'
वह
स्त्री लौटकर निकल गयी। सरला भीतर घुसी। उसने वह यंत्र मंगल के गले में
बाँध दिया और मन-ही-मन भगवान से प्रार्थना की। वहीं बैठी रही। दोनों ने
रात भर बड़े यत्न से सेवा की।
प्रभात होने लगा। बड़े
सन्देह से
सरला ने उस प्रभात के आलोक को देखा। दीप की ज्योति मलिन हो चली। रोगी इस
समय निद्रित था। जब प्रकाश उस कोठरी में घुस आया, तब गाला, सरला और मंगल
तीनों नींद में सो रहे थे।
जब कथा समाप्त करके सब
लोगों के चले
जाने पर गोस्वामीजी उठकर मंगलदेव के पास आये, तब गाला बैठी पंखा झल रही
थी। उन्हें देखकर वह संकोच से उठ खड़ी हुई। गोस्वामीजी ने कहा, 'सेवा सबसे
कठिन व्रत है देवि! तुम अपना काम करो। हाँ मंगल! तुम अब अच्छे हो न!'
कम्पित कंठ से मंगल ने
कहा, 'हाँ, गुरुदेव!'
'अब तुम्हारा अभ्युदय-काल
है, घबराना मत।' कहकर गोस्वामीजी चले गये।
दीपक
जल गया। आज अभी तक सरला नहीं आयी। गाला को बैठे हुए बहुत विलम्ब हुआ। मंगल
ने कहा, 'जाओ गाला, संध्या हुई; हाथ-मुँह तो धो लो, तुम्हारे इस अथक
परिश्रम से मैं कैसे उद्धार पाऊँगा।'
गाला लज्जित हुई। इतने
सम्भ्रान्त मनुष्य और स्त्रियों के बीच आकर कानन-वासिनी ने लज्जा सीख ली
थी। वह अपने स्त्रीत्व का अनुभव कर रही थी। उसके मुख पर विजय की मुस्कराहट
थी। उसने कहा, 'अभी माँ जी नहीं आयीं, उन्हें बुला लाऊँ!' कहकर सरला को
खोजने के लिए वह चली।
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