उपन्यास >> कंकाल कंकालजयशंकर प्रसाद
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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
मैंने भगवान् की ओर से
मुँह
मोड़कर मिट्टी के खिलौने में मन लगाया था। वे ही मेरी ओर देखकर,
मुस्कुराते हुए त्याग का परिचय देकर चले गये और मैं कुछ टुकड़ों को,
चीथड़ों को सम्हालने-सुलझाने में व्यस्त बैठा रहा।
किशोरी! सुना
है कि सब छीन लेते हैं भगवान् मनुष्य से, ठीक उसी प्रकार जैसे पिता
खिलवाड़ी लड़के के हाथ से खिलौना! जिससे वह पढ़ने-लिखने में मन लगाये। मैं
अब यही समझता हूँ कि यह परमपिता का मेरी ओर संकेत है।
हो या न
हो, पर मैं जानता हूँ कि उसमें क्षमा की क्षमता है, मेरे हृदय की
प्यास-ओफ! कितनी भीषण है-वह अनन्त तृष्णा! संसार के कितने ही कीचड़ों पर
लहराने वाली जल की पतली तहों में शूकरों की तरह लोट चुकी है! पर लोहार की
तपाई हुई छुरी जैसे सान रखने के लिए बुझाई जाती हो, वैसे ही मेरी प्यास
बुझकर भी तीखी होती गयी।
जो लोग पुनर्जन्म मानते
हैं, जो लोग
भगवान् को मानते हैं, वे पाप कर सकते हैं? नहीं, पर मैं देखता हूँ कि इन
पर लम्बी-चौड़ी बातें करने वाले भी इससे मुक्त नहीं। मैं कितने जन्म लूँगा
इस प्यास के लिए, मैं नहीं कह सकता। न भी लेना पड़ा, नहीं जानता! पर मैं
विश्वास करने लगा हूँ कि भगवान् में क्षमा की क्षमता है।
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