उपन्यास >> कंकाल कंकालजयशंकर प्रसाद
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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
मर्मव्यथा
से व्याकुल होकर गोस्वामी कृष्णशरण से जब मैंने अपना सब समाचार सुनाया, तो
उन्होंने बहुत देर तक चुप रहकर यही कहा-निरंजन, भगवान क्षमा करते हैं।
मनुष्य भूलें करता है, इसका रहस्य है मनुष्य का परिमित ज्ञानाभास। सत्य
इतना विराट् है कि हम क्षुद्र जीव व्यावहारिक रूप से उसे सम्पूर्ण ग्रहण
करने में प्रायः असमर्थ प्रमाणित होते हैं। जिन्हें हम परम्परागत
संस्कारों के प्रकाश में कलंकमय देखते हैं, वे ही शुद्ध ज्ञान में यदि
सत्य ठहरें, तो मुझे आश्चर्य न होगा। तब भी मैं क्या करूँ यमुना के सहसा
संघ से चले जाने पर नन्दो ने मुझसे कहा कि यमुना का मंगल से ब्याह होने
वाला था। हरद्वार में मंगल ने उसके साथ विश्वासघात करके उसे छोड़ दिया। आज
भला जब वही मंगल एक दूसरी औरत से ब्याह कर रहा है, तब वह क्यों न चली जाती
मैं यमुना की दुर्दशा सुनकर काँप गया। मैं ही मंगल का दूसरा ब्याह कराने
वाला हूँ। आह! मंगल का समाचार तो नन्दो ने सुना ही था, अब तुम्हारी भी कथा
सुनकर मैं तो शंका करने लगा हूँ कि अनिच्छापूर्वक भी भारत-संघ की स्थापना
में सहायक बनकर मैंने क्या किया-पुण्य या पाप प्राचीनकाल के इतने
बड़े-बड़े संगठनों में जड़ता की दुर्बलता घुस गयी! फिर यह प्रयास कितने बल
पर है वाह रे मनुष्य! तेरे विचार कितने निस्सबल हैं, कितने दुर्बल हैं!
मैं भी जानता हूँ इसी को विचारने वाली एकान्त में! और तुमसे मैं केवल यही
कहूँगा कि भगवान् पर विश्वास और प्रेम की मात्रा बढ़ाती रहो।
किशोरी!
न्याय और दण्ड देने का ढकोसला तो मनुष्य भी कर सकता है; पर क्षमा में
भगवान् की शक्ति है। उसकी सत्ता है, महत्ता है, सम्भव है कि इसीलिए सबसे
क्षमा के लिए यह महाप्रलय करता हो।
तो किशोरी! उसी महाप्रलय
की आशा में मैं भी किसी निर्जन कोने में जाता हूँ, बस-बस!'
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