उपन्यास >> कंकाल कंकालजयशंकर प्रसाद
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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
वृक्ष के नीचे कुर्सियाँ
पड़ी थीं। सब बैठे थे।
बातचीत हो रही थी। तारा अतिथियों के स्वागत में लगी थी। भोजन बनकर
प्रस्तुत था। ज्ञानदत्त ने कहा, 'अभी ब्रह्मचारी जी नहीं आये!'
अरुण, 'आते ही होंगे!'
वेद-'तब तक हम लोग संध्या
कर लें।'
इन्द-'यह प्रस्ताव ठीक
है; परन्तु लीजिये, वह ब्रह्मचारी जी आ रहे हैं।'
एक
घुटनों से नीचा लम्बा कुर्ता डाले, लम्बे बाल और छोटी दाढ़ी वाले
गौरवपूर्ण युवक को देखते ही नमस्ते की धूम मच गई। ब्रह्मचारी जी बैठे।
मंगलदेव का परिचय देते हुए वेदस्वरूप ने कहा, 'आपका शुभ नाम मंगलदेव है!
उन्होंने ही इन देवी का यवनों के चंगुल से उद्धार किया है।' तारा ने
नमस्ते किया, ब्रह्मचारी ने पहले हँस कर कहा, 'सो तो होना चाहिए, ऐसे ही
नवयुवकों से भारतवर्ष को आशा है। इस सत्साह के लिए मैं धन्यवाद देता हूँ
आप समाज में कब से प्रविष्ट हुए हैं?'
'अभी तो मैं सभ्यों में
नहीं हूँ।' मंगल ने कहा।
'बहुत
शीघ्र जाइये, बिना भित्ति के कोई घर नहीं टिकता और बिना नींव की कोई
भित्ति नहीं। उसी प्रकार सद्विचार के बिना मनुष्य की स्थिति नहीं और
धर्म-संस्कारों के बिना सद्विचार टिकाऊ नहीं होते। इसके सम्बन्ध में मैं
विशेष रूप से फिर कहूँगा। आइये, हम लोग सन्ध्या-वन्दन कर लें।'
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