उपन्यास >> कंकाल कंकालजयशंकर प्रसाद
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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
सन्ध्या
और प्रार्थना के समय मंगलदेव केवल चुपचाप बैठा रहा। थालियाँ परसी गईं।
भोजन करने के लिए लोग आसन पर बैठे। वेदस्वरूप ने कहना आरम्भ किया, 'हमारी
जाति में धर्म के प्रति इतनी उदासीनता का कारण है एक कल्पित ज्ञान; जो इस
देश के प्रत्येक प्राणी के लिए सुलभ हो गया है। वस्तुतः उन्हें ज्ञानभाव
होता है और वे अपने साधारण नित्यकर्म से वंचित होकर अपनी आध्यात्मिक
उन्नति करने में भी असमर्थ होते हैं।'
ज्ञानदत्त-'इसलिए आर्यों
का कर्मवाद संसार के लिए विलक्षण कल्याणदायक है-ईश्वर के प्रति विश्वास
करते हुए भी स्वावलम्बन का पाठ पढ़ाता है। यह ऋषियों का दिव्य अनुसंधान
है।'
ब्रह्मचारी ने कहा, 'तो
अब क्या विलम्ब है, बातें भी चला करेंगी।'
मंगलदेव ने कहा, 'हाँ,
हाँ आरम्भ कीजिये।'
ब्रह्मचारी ने गंभीर स्वर
में प्रणवाद किया और दन्त-अन्न का युद्ध प्रारम्भ हुआ।
मंगलदेव
ने कहा, 'परन्तु संसार की अभाव-आवश्यकताओं को देखकर यह कहना पड़ता है कि
कर्मवाद का सृजन करके हिन्दू-जाति ने अपने लिए असंतोष और दौड़-धूप, आशा और
संकल्प का फन्दा बना लिया है।'
'कदापि नहीं, ऐसा समझना
भ्रम है महाशयजी! मनुष्यों को पाप-पुण्य की सीमा में रखने के लिए इससे
बढ़कर कोई उपाय जाग्रत नहीं मिला।'
सुभद्रा ने कहा।
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