उपन्यास >> कंकाल कंकालजयशंकर प्रसाद
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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
उपवन के बाहर तक तारा और
मंगलदेव ने अतिथियों को पहुँचाया। लोग
विदा हो गये। मंगलदेव अपनी कोठरी में चला गया और तारा अपने कमरे में जाकर
पलंग पर लेट गयी। उसने एक बार आकाश के सुकुमार शिशु को देखा। छोटे-से
चन्द्र की हलकी चाँदनी में वृक्षों की परछाईं उसकी कल्पनाओं को रंजित करने
लगी। वह अपने उपवन का मूक दृश्य खुली आँखों से देखने लगी। पलकों में नींद
न थी, मन में चैन न था, न जाने क्यों उसके हृदय में धड़कन बढ़ रही थी।
रजनी के नीरव संसार में वह उसे साफ सुन रही थी। जागते-जागते दोपहर से अधिक
चली गयी। चन्द्रिका के अस्त हो जाने से उपवन में अँधेरा फैल गया। तारा उसी
में आँख गड़ाकर न जाने क्या देखना चाहती थी। उसका भूत, वर्तमान और
भविष्य-तीनों अन्धकार में कभी छिपते और कभी तारों के रूप में चमक उठते। वह
एक बार अपनी उस वृत्ति का आह्वान करने की चेष्टा करने लगी, जिसकी शिक्षा
उसे वेश्यालय से मिली थी। उसने मंगल को तब नहीं, परन्तु अब खींचना चाहा।
रसीली कल्पनाओं से हृदय भर गया। रात बीत चली। उषा का आलोक प्राची में फैल
रहा था। उसने खिड़की से झाँककर देखा तो उपवन में चहल-पहल थी। जूही की
प्यालियों में मकरन्द-मदिरा पीकर मधुपों की टोलियाँ लड़खड़ा रही थीं और
दक्षिणपवन मौलसिरी के फूलों की कौड़ियाँ फेंक रहा था। कमर से झुकी हुई
अलबेली बेलियाँ नाच रही थीं। मन की हार-जीत हो रही थी।
मंगलदेव ने पुकारा,
'नमस्कार!'
तारा ने मुस्कुराते हुए
पलंग पर बैठकर दोनों हाथ सिर से लगाते हुए कहा, 'नमस्कार!'
मंगल ने देखा - कविता में
वर्णित नायिका जैसे प्रभात की शैया पर बैठी है।
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