उपन्यास >> कंकाल कंकालजयशंकर प्रसाद
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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
समय
के साथ-साथ अधिकाधिक गृहस्थी में चतुर और मंगल परिश्रमी होता जाता था।
सवेरे जलपान बनाकर तारा मंगल को देती, समय पर भोजन और ब्यालू। मंगल के
वेतन में सब प्रबन्ध हो जाता, कुछ बचता न था। दोनों को बचाने की चिंता भी
न थी, परन्तु इन दोनों की एक बात नई हो चली। तारा मंगल के अध्ययन में बाधा
डालने लगी। वह प्रायः उसके पास ही बैठ जाती। उसकी पुस्तकों को उलटती, यह
प्रकट हो जाता कि तारा मंगल से अधिक बातचीत करना चाहती है और मंगल कभी-कभी
उससे घबरा उठता।
वसन्त का प्रारम्भ था,
पत्ते देखते ही देखते
ऐंठते जाते थे और पतझड़ के बीहड़ समीर से वे झड़कर गिरते थे। दोपहर था।
कभी-कभी बीच में कोई पक्षी वृक्षों की शाखाओं में छिपा हुआ बोल उठता। फिर
निस्तब्धता छा जाती। दिवस विरस हो चले थे। अँगड़ाई लेकर तारा ने वृक्ष के
नीचे बैठे हुए मंगल से कहा, 'आज मन नहीं लगता है।'
'मेरा मन भी उचाट हो रहा
है। इच्छा होती है कि कहीं घूम आऊँ; परन्तु तुम्हारा ब्याह हुए बिना मैं
कहीं नहीं जा सकता।'
'मैं तो ब्याह न करूँगी।'
'क्यों?'
'दिन तो बिताना ही है,
कहीं नौकरी कर लूँगी। ब्याह करने की क्या आवश्यकता है?'
'नहीं तारा, यह नहीं हो
सकता। तुम्हारा निश्चित लक्ष्य बनाये बिना कर्तव्य मुझे धिक्कार देगा।'
'मेरा लक्ष्य क्या है,
अभी मैं स्वयं स्थिर नहीं कर सकी।'
'मैं स्थिर करूँगा।'
'क्यों ये भार अपने ऊपर
लेते हो मुझे अपनी धारा में बहने दो।'
'सो नहीं हो सकेगा।'
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