उपन्यास >> कंकाल कंकालजयशंकर प्रसाद
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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
'मैं
कभी-कभी विचारती हूँ कि छायाचित्र-सदृश जलस्रोत में नियति पवन के थपेड़े
लगा रही है, वह तरंग-संकुल होकर घूम रहा है। और मैं एक तिनके के सदृश उसी
में इधर-उधर बह रही हूँ। कभी भँवर में चक्कर खाती हूँ, कभी लहरों में
नीचे-ऊपर होती हूँ। कहीं कूल-किनारा नहीं।' कहते-कहते तारा की आँखें छलछला
उठीं।
'न घबड़ाओ तारा, भगवान्
सबके सहायक हैं।' मंगल ने कहा। और जी बहलाने के लिए कहीं घूमने का
प्रस्ताव किया।
दोनों
उतरकर गंगा के समीप के शिला-खण्डों से लगकर बैठ गये। जाह्नवी के स्पर्श से
पवन अत्यन्त शीतल होकर शरीर में लगता है। यहाँ धूप कुछ भली लगती थी। दोनों
विलम्ब तक बैठे चुपचाप निसर्ग के सुन्दर दृश्य देखते थे। संध्या हो चली।
मंगल ने कहा, 'तारा चलो, घर चलें।' तारा चुपचाप उठी। मंगल ने देखा, उसकी
आँखें लाल हैं। मंगल ने पूछा, 'क्या सिर दर्द है?'
'नहीं तो।'
दोनों घर पहुँचे। मंगल ने
कहा, 'आज ब्यालू बनाने की आवश्यकता नहीं, जो कहो बाजार से लेता आऊँ।'
'इस तरह कैसे चलेगा। मुझे
क्या हुआ है, थोड़ा दूध ले आओ, तो खीर बना दूँ, कुछ पूरियाँ बची हैं।'
मंगलदेव दूध लेने चला
गया।
तारा
सोचने लगी - मंगल मेरा कौन है, जो मैं इतनी आज्ञा देती हूँ। क्या वह मेरा
कोई है। मन में सहसा बड़ी-बड़ी अभिलाषाएँ उदित हुईं और गंभीर आकाश के
शून्य में ताराओं के समान डूब गई। वह चुप बैठी रही।
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