उपन्यास >> कंकाल कंकालजयशंकर प्रसाद
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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
सुभद्रा
रुक गयी। तारा के कपोल लाल हो गये। उसकी ओर कनखियों से देख रही थी। वह
बोली, 'क्या मंगलदेव ब्याह करने पर प्रस्तुत नहीं होते?'
'मैंने तो कभी प्रस्ताव
किया नहीं।'
'मैं
करूँगी बहन! संसार बड़ा खराब है। तुम्हारा उद्धार इसलिए नहीं हुआ है कि
तुम यों ही पड़ी रहो! मंगल में यदि साहस नहीं है, तो दूसरा पात्र ढूँढ़ा
जायेगा; परन्तु सावधान! तुम दोनों को इस तरह रहना कोई भी समाज हो, अच्छी
आँखों से नहीं देखेगा। चाहे तुम दोनों कितने ही पवित्र हो!'
तारा
को जैसे किसी ने चुटकी काट ली। उसने कहा, 'न देखे समाज भले ही, मैं किसी
से कुछ चाहती तो नहीं; पर मैं अपने ब्याह का प्रस्ताव किसी से नहीं कर
सकती।'
'भूल है प्यारी बहन!
हमारी स्त्रियों की जाति इसी में
मारी जाती है। वे मुँह खोलकर सीधा-सादा प्रस्ताव नहीं कर सकतीं; परन्तु
संकेतों से अपनी कुटिल अंग-भंगियों के द्वारा प्रस्ताव से अधिक करके
पुरुषों को उत्साहित किया करती हैं। और बुरा न मानना, तब वे अपना सर्वस्व
अनायास ही नष्ट कर देती हैं। ऐसी कितनी घटनाएँ जानी गयी हैं।'
तारा जैसे घबरा गयी। वह
कुछ भारी मुँह किये बैठी रही। सुभद्रा भी कुछ समय बीतने पर चली गयी।
मंगलदेव पाठशाला से लौटा।
आज उसके हाथ में एक भारी गठरी थी। तारा उठ खड़ी हुई। पूछा, 'आज यह क्या ले
आये?'
हँसते हुए मंगल ने कहा,
'देख लो।'
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