उपन्यास >> कंकाल कंकालजयशंकर प्रसाद
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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
गठरी खुली-साबुन, रूमाल,
काँच की चूड़ियाँ, इतर और भी कुछ प्रसाधन के उपयोगी पदार्थ थे। तारा ने
हँसते हुए उन्हें अपनाया।
मंगल
ने कहा, 'आज समाज में चलो, उत्सव है। कपड़े बदल लो।' तारा ने स्वीकार सूचक
सिर हिला दिया। कपड़े का चुनाव होने लगा। साबुन लगा, कंघी फेरी गई। मंगल
ने तारा की सहायता की, तारा ने मंगल की। दोनों नयी स्फूर्ति से प्रेरित
होकर समाज-भवन की ओर चले।
इतने दिनों बाद तारा आज
ही हरद्वार के
पथ पर बाहर निकलकर चली। उसे गलियों का, घाटों का, बाल्यकाल का दृश्य स्मरण
हो रहा था - यहाँ वह खेलने आती, वहाँ दर्शन करती, वहाँ पर पिता के साथ
घूमने आती। राह चलते-चलते उसे स्मृतियों ने अभिभूत कर दिया। अकस्मात् एक
प्रौढ़ा स्त्री उसे देखकर रुकी और साभिप्राय देखने लगी। वह पास चली आयी।
उसने फिर आँखें गड़ाकर देखा, 'तारा तो नहीं।'
'हाँ, चाची!'
'अरी तू कहाँ?'
'भाग्य!'
'क्या तेरे बाबूजी नहीं
जानते!'
'जानते हैं चाची, पर मैं
क्या करूँ ?’
'अच्छा तू कहाँ है? मैं
आऊँगी।'
'लालाराम की बगीची में।'
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