उपन्यास >> कंकाल कंकालजयशंकर प्रसाद
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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
अभी
ये लोग बातें कर रहे थे कि उस दिन की चाची दिखलाई पड़ी। तारा ने प्रसन्नता
से उसका स्वागत किया। उसका चादर उतारकर उसे बैठाया। मंगलदेव बाहर चला गया।
'तारा तुमने यहाँ आकर
अच्छा नहीं किया।' चाची ने कहा।
'क्यों चाची! जहाँ अपने
परिचित होते हैं, वहीं तो लोग जाते हैं। परन्तु दुर्नाम की अवस्था में उसे
जगह से अलग जाना चाहिए।'
'तो क्या तुम लोग चाहती
हो कि मैं यहाँ न रहूँ ?’
'नहीं-नहीं, भला ऐसा भी
कोई कहेगा।' जीभ दबाते हुए चाची ने कहा।
'पिताजी ने मेरा तिरस्कार
किया, मैं क्या करती चाची।' तारा रोने लगी।
चाची ने सान्त्वना देते
हुए कहा, 'न रो तारा!'
समझाने
के बाद फिर तारा चुप हुई; परन्तु वह फूल रही थी। फिर मंगल के प्रति संकेत
करते हुए चाची ने पूछा, 'क्या यह प्रेम ठहरेगा तारा, मैं इसलिए चिन्तित हो
रही हूँ, ऐसे बहुत से प्रेमी संसार में मिलते हैं; पर निभाने वाले बहुत कम
होते हैं। मैंने तेरी माँ को ही देखा है।' चाची की आँखों में आँसू भर आये;
पर तारा को अपनी माता का इस तरह का स्मरण किया जाना बहुत बुरा लगा। वह कुछ
न बोली। चाची को जलपान कराना चाहा; पर वह जाने के लिए हठ करने लगी। तारा
समझ गयी और बोला, 'अच्छा चाची! मेरे ब्याह में आना। भला और कोई नहीं, तो
तुम तो अकेली अभागिन पर दया करना।'
चाची को जैसे ठोकर सी लग
गयी। वह सिर उठाकर कहने लगी, 'कब है अच्छा-अच्छा आऊँगी।' फिर इधर-उधर की
बातें करके वह चली गयी।
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