उपन्यास >> कंकाल कंकालजयशंकर प्रसाद
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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
चाची चली गयी। ये लोग
समाज-भवन की ओर चले।
कपड़े सूख चले थे। तारा
उन्हें इकट्ठा कर रही थी। मंगल बैठा हुआ उनकी तह लगा रहा था। बदली थी।
मंगल ने कहा, 'आज खूब जल बरसेगा।'
'क्यों?'
'बादल
भींग रहे हैं, पवन रुका है। प्रेम का भी पूर्व रूप ऐसा ही होता है। तारा!
मैं नहीं जानता था कि प्रेम-कादम्बिनी हमारे हृदयाकाश में कब से अड़ी थी
और तुम्हारे सौन्दर्य का पवन उस पर घेरा डाले हुए था।'
'मैं
जानती थी। जिस दिन परिचय की पुनरावृत्ति हुई, मेरे खारे आँसुओं के प्रेमघन
बन चुके थे। मन मतवाला हो गया था; परन्तु तुम्हारी सौम्य-संयत चेष्टा ने
रोक रखा था; मैं मन-ही-मन महसूस कर जाती। और इसलिए मैं तुम्हारी आज्ञा
मानकर तुम्हें अपने जीवन के साथ उलझाने लगी थी।'
'मैं नहीं जानता था, तुम
इतनी चतुर हो। अजगर के श्वास में खिंचे हुए मृग के समान मैं तुम्हारी
इच्छा के भीतर निगल लिया गया।'
'क्या तुम्हें इसका खेद
है?'
'तनिक
भी नहीं प्यारी तारा, हम दोनों इसलिए उत्पन्न हुए थे। अब मैं उचित समझता
हूँ कि हम लोग समाज के प्रचलित नियमों में आबद्ध हो जायें, यद्यपि मेरी
दृष्टि में सत्य-प्रेम के सामने उसका कुछ मूल्य नहीं।'
'जैसी तुम्हारी इच्छा।'
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