उपन्यास >> कंकाल कंकालजयशंकर प्रसाद
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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
'क्यों
आश्चर्य से मंगल उसका मुँह देखने लगा। चाची के मुँह पर उस समय बड़ा
विचित्र भाव था। विलास-भरी आँखें, मचलती हुई हँसी देखकर मंगल को स्वयं
संकोच होने लगा। कुत्सित स्त्रियों के समान वह दिल्लगी के स्वर में बोली,
'मंगल बड़ा अच्छा है, ब्याह जल्द कर लो, नहीं तो बाप बन जाने के पीछे
ब्याह करना ठीक नहीं होगा।'
मंगल को क्रोध और लज्जा
के साथ घृणा
भी हुई। चाची ने अपना आँचल सँभालते हुए तीखे कटाक्षों से मंगल की ओर देखा।
मंगल मर्माहत होकर रह गया। वह बोला, 'चाची!'
और भी हँसती हुई चाची ने
कहा, 'सच कहती हूँ, दो महीने से अधिक नहीं टले हैं।'
मंगल
सिर झुकाकर सोचने के बाद बोला, 'चाची, हम लोगों का सब रहस्य तुम जानती हो
तो तुमसे बढ़कर हम लोगों का शुभचिन्तक और मित्र कौन हो सकता है, अब जैसा
तुम कहो वैसा करें।'
चाची अपनी विजय पर
प्रसन्न होकर बोली, 'ऐसा
प्रायः होता है। तारा की माँ ही कौन कहीं की भण्डारजी की ब्याही धर्मपत्नी
थी! मंगल, तुम इसकी चिंता मत करो, ब्याह शीघ्र कर लो, फिर कोई न बोलेगा।
खोजने में ऐसों की संख्या भी संसार में कम न होगी।'
चाची अपनी
वक्तृता झाड़ रही थी। उधर मंगल तारा की उत्पत्ति के सम्बन्ध में विचारने
लगा। अभी-अभी उस दुष्टा चाची ने एक मार्मिक चोट उसे पहुँचायी। अपनी भूल और
अपने अपराध मंगल को नहीं दिखाई पड़े; परन्तु तारा की माँ भी
दुराचारिणी!-यह बात उसे खटकने लगी। वह उठकर उपवन की ओर चला गया। चाची ने
बहुत चाहा कि उसे अपनी बातों में लगा ले; पर वह दुखी हो गया था। इतने में
तारा लौट आयी। बड़ा आग्रह दिखाते हुए चाची ने कहा, 'तारा, ब्याह के लिए
परसों का दिन अच्छा है। और देखो, तुम नहीं जानती हो कि तुमने अपने पेट में
एक जीव को बुला लिया है; इसलिए ब्याह का हो जाना अत्यन्त आवश्यक है।'
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