उपन्यास >> कंकाल कंकालजयशंकर प्रसाद
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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
तारा चाची की गम्भीर
मूर्ति देखकर डर गयी। वह अपने मन में सोचने लगी - जैसा चाची कहती है वही
ठीक है। तारा सशंक हो चली!
चाची के जाने पर मंगल लौट
आया। तारा और मंगल दोनों का हृदय उछल रहा था। साहस करके तारा ने पूछा,
'कौन दिन ठीक हुआ?'
सिर झुकाते हुए मंगल ने
कहा, 'परसों। फिर वह अपना कोट पहनने हुए उपवन के बाहर हो गया।?'
तारा
सोचने लगी - क्या सचमुच मैं एक बच्चे की माँ हो चली हूँ। यदि ऐसा हुआ तो
क्या होगा। मंगल का प्रेम ही रहेगा - वह सोचते-सोचते लेट गयी। सामान बिखरे
रहे।
परसों के आते विलम्ब न
हुआ।
घर में ब्याह का समारोह
था। सुभद्रा और चाची काम में लगी हुई थीं। होम के लिए वेदी बन चुकी थी।
तारा का प्रसाधन हो रहा था; परन्तु मंगलदेव स्नान करने हर की पैड़ी गया
था। वह स्नान करके घाट पर आकर बैठ गया। घर लौटने की इच्छा न हुई। वह सोचने
लगा - तारा दुराचारिणी की संतान है, वह वेश्या के यहाँ रही है, फिर मेरे
साथ भाग आयी, मुझसे अनुचित सम्बन्ध हुआ और अब वह गर्भवती है। आज मैं ब्याह
करके कई कुकर्मों की कलुषित सन्तान का पिता कहलाऊँगा! मैं क्या करने जा
रहा हूँ! - घड़ी भर की चिंता में वह निमग्न था। अन्त में इसी समय उसके
ध्यान में एक ऐसी बात आ गयी कि उसके सत्साहस ने उसका साथ छोड़ दिया। वह
स्वयं समाज की लाँछना सह सकता था; परन्तु भावी संतान के प्रति समाज की
कल्पित लांछना और अत्याचार ने उसे विचलित किया। वह जैसे एक भावी विप्लव के
भय से त्रस्त हो गया। भगोड़े समान वह स्टेशन की ओर अग्रसर हुआ। उसने देखा,
गाड़ी आना ही चाहती है। उसके कोट की जेब में कुछ रुपये थे। पूछा, 'इस
गाड़ी से बनारस पहुँच सकता हूँ?'
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