उपन्यास >> कंकाल कंकालजयशंकर प्रसाद
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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
'बस करो चाची, मुझसे ऐसी
बातें न करो।
यदि ऐसा ही करना होगा, तो मैं किसी कोठे पर जा बैठूँगी; पर यह टट्टी की ओट
में शिकार करना नहीं जानती। तारा ने ये बातें कुछ क्रोध में कहीं। चाची का
पारा चढ़ गया। उसने बिगड़कर कहा, 'देखो निगोड़ी, मुझी को बातें सुनाती है।
करम आप करे और आँखें दिखावे दूसरे को!'
तारा रोने लगी। वह
खुर्राट चाची से लड़ना न चाहती थी; परन्तु अभिप्राय न सधने पर चाची स्वयं
लड़ गयी। वह सोचती थी कि अब उसका सामान धीरे-धीरे ले ही लिया, दाल-रोटी
दिन में एक बार खिला दिया करती थी। जब इसके पास कुछ बचा ही नहीं और आगे की
कोई आशा भी न रही, तब इसका झंझट क्यों अपने सिर रखूँ। वह क्रोध से बोली,
'रो मत राँड़ कहीं की। जा हट, अपना दूसरा उपाय देख। मैं सहायता भी करूँ और
बातें भी सुनूँ, यह नहीं हो सकता। कल मेरी कोठरी खाली कर देना। नहीं तो
झाड़ू मारकर निकाल दूँगी।'
तारा चुपचाप रो रही थी,
वह कुछ न
बोली। रात हो चली। लोग अपने-अपने घरों में दिन भर के परिश्रम का आस्वाद
लेने के लिए किवाड़ें बन्द करने लगे; पर तारा की आँखें खुली थीं। उनमें अब
आँसू भी न थे। उसकी छाती में मधु-विहीन मधुच्रक-सा एक नीरस कलेजा था,
जिसमे वेदना की ममाछियों की भन्नाहट थी। संसार उसकी आँखों में घूम जाता
था, वह देखते हुए भी कुछ न देखती, चाची अपनी कोठरी में जाकर खा-पीकर सो
रही। बाहर कुत्ते भौंक रहे थे। आधी रात बीत रही थी। रह-रहकर निस्तब्धता का
झोंका आ जाता था। सहसा तारा उठ खड़ी हुई। उन्मादिनी के समान वह चल पड़ी।
फटी धोती उसके अंग पर लटक रही थी। बाल बिखरे थे, बदन विकृत। भय का नाम
नहीं। जैसे कोई यंत्रचालित शव चल रहा हो। वह सीधे जाह्नवी के तट पर
पहुँची। तारों की परछाईं गंगा के वक्ष मे खुल रही थी। स्रोत में हर-हर की
ध्वनि हो रही थी। तारा एक शिलाखण्ड पर बैठ गयी। वह कहने लगी - मेरा अब कौन
रहा, जिसके लिए जीवित रहूँ। मंगल ने मुझे निरपराध ही छोड़ दिया, पास में
पाई नहीं, लांछनपूर्ण जीवन, कहीं धंधा करके पेट पालने के लायक भी नहीं
रही। फिर इस जीवन को रखकर क्या करूँ! हाँ, गर्भ में कुछ है, वह क्या है,
कौन जाने! यदि आज न सही, तो भी एक दिन अनाहार से प्राण छटपटाकर जायेगा ही
- तब विलम्ब क्यों?'
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