उपन्यास >> कंकाल कंकालजयशंकर प्रसाद
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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
मंगल! भगवान् ही जानते
होंगे कि तुम्हारी
शय्या पवित्र है। कभी स्वप्न में भी तुम्हें छोड़कर इस जीवन में किसी से
प्रेम नहीं किया, और न तो मैं कलुषित हुई। यह तुम्हारी प्रेम-भिखारिनी
पैसे की भीख नहीं माँग सकती और न पैसे के लिए अपनी पवित्रता बेच सकती है
तब दूसरा उपाय ही क्या मरण को छोड़कर दूसरा कौन शरण देगा भगवान्! तुम यदि
कहीं हो, तो मेरे साक्षी रहना!
वह गंगा में जा ही चुकी
थी कि
सहसा एक बलिष्ठ हाथ ने उसे पकड़कर रोक लिया। उसने छटपटाकर पूछा, 'तुक कौन
हो, जो मेरे मरने का भी सुख छीनना चाहते हो?'
'अधर्म होगा, आत्महत्या
पाप है?' एक लम्बा संन्यासी कह रहा था।
'पाप
कहाँ! पुण्य किसका नाम है मैं नहीं जानती। सुख खोजती रही, दुख मिला; दुःख
ही यदि पाप है, तो मैं उससे छूटकर सुख की मौत मर रही हूँ - पुण्य कर रही
हूँ, करने दो!'
'तुमको अकेले मरने का
अधिकार चाहे हो भी; पर एक
जीव-हत्या तुम और करने जा रही हो, वह नहीं होगा। चलो तुम अभी, यहीं
पर्णशाला है, उसमें रात भर विश्राम करो। प्रातःकाल मेरा शिष्य आवेगा और
तुम्हें अस्पताल ले जायेगा। वहाँ तुम अन्न चिंता से भी निश्चिन्त रहोगी।
बालक उत्पन्न होने पर तुम स्वतंन्त्र हो, जहाँ चाहे चली जाना।' संन्यासी
जैसे आत्मानुभूति से दृड़ आज्ञा भरे शब्दों में कह रहा था। तारा को बात
दोहराने का साहस न हुआ। उसके मन में बालक का मुख देखने की अभिलाषा जाग
गयी। उसने भी संकल्प कर लिया कि बालक का अस्पताल में पालन हो जायेगा; फिर
मैं चली जाऊँगी।
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