उपन्यास >> कंकाल कंकालजयशंकर प्रसाद
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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
नींद खुली, तब लम्प जला
दिये गये थे। दूज का
चन्द्रमा पीला होकर अभी निस्तेज था, हल्की चाँदनी धीरे-धीरे फैलने लगी।
पवन में कुछ शीतलता थी। विजय ने आँखें खोलकर देखा, मंगल अभी पड़ा था। उसने
जगाया और हाथ-मुँह धोने के लिए कहा।
दोनों मित्र आकर पाई-बाग
में पारिजात के नीचे पत्थर पर बैठ गये। विजय ने कहा, 'एक प्रश्न है।'
मंगल ने कहा, 'प्रत्येक
प्रश्न के उत्तर भी हैं, कहो भी।'
'क्यों तुमने रक्षा-कवच
तोड़ डाला क्या उस पर से विश्वास उठ गया ।
'नहीं विजय, मुझे उस सोने
की आवश्यकता थी।' मंगल ने बड़ी गम्भीरता से कहा,'क्यों?'
'इसके
लिए घण्टों का समय चाहिए, तब तुम समझ सकोगे। अपनी वह रामकहानी पीछे
सुनाऊँगा, इस समय केवल इतना ही कहे देता हूँ कि मेरे पास एक भी पैसा न था,
और तीन दिन इसीलिए मैंने भोजन भी नहीं किया। तुमसे यह कहने में मुझे लज्जा
नहीं।'
'यह तो बड़े आश्चर्य की
बात है!'
'आश्चर्य इसमें
कौन-सा अभी तुमने देखा है कि इस देश की दरिद्रता कैसी विकट है-कैसी नृशंस
है! कितने ही अनाहार से मरते हैं! फिर मेरे लिए आश्चर्य क्यों इसलिए कि
मैं तुम्हारा मित्र हूँ?'
'मंगलदेव! दुहाई है,
घण्टों नहीं मैं
रात-भर सुनूँगा। तुम अपना रहस्यपूर्ण वृत्तांत सुनाओ। चलो, कमरे में चलें।
यहाँ ठंड लग रही है।'
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