उपन्यास >> कंकाल कंकालजयशंकर प्रसाद
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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
'भीतर तो बैठे ही थे, फिर
यहाँ आने की क्या आवश्यकता थी अच्छा चलो; परन्तु एक प्रतिज्ञा करनी होगी।'
'वह क्या?'
'मेरा सोना बेचकर कुछ
दिनों के लिए मुझे निश्चिन्त बना दो।'
'अच्छा भीतर तो चलो।'
कमरे
में पहुँचकर दोनों मित्र पहुँचे ही थे कि दरवाजे के पास से किसी ने पूछा,
'विजय, एक दुखिया स्त्री आयी है, मुझे आवश्यकता भी है, तू कहे तो उसे रख
लूँ।'
'अच्छी बात है माँ! वही
ना जो बेहोश हो गयी थी!'
'हाँ वही, बिल्कुल अनाथ
है।'
'उसे अवश्य रख लो।' एक
शब्द हुआ, मालूम हुआ कि पूछने वाली चली गयी थी, तब विजय ने मंगलदेव से
कहा, 'अब कहो!'
मंगलदेव
ने कहना प्रारम्भ किया, 'मुझे एक अनाथालय से सहायता मिलती थी, और मैं
पढ़ता था। मेरे घर कोई है कि नहीं यह भी मुझे मालूम नही; पर जब मै सेवा
समिति के काम से पढ़ाई छोड़कर हरद्वार चला गया, तब मेरी वृत्ति बंद हो
गयी। मैं घर लौट आया। आर्यसमाज से भी मेरा कुछ सम्पर्क था; परन्तु मैंने
देखा कि वह खण्डनात्मक है; समाज में केवल इसी से काम नहीं चलता। मैंने
भारतीय समाज का ऐतिहासिक अध्ययन करना चाहा और इसलिए पाली, प्राकृत का
पाठ्यक्रम स्थिर किया। भारतीय धर्म और समाज का इतिहास तब तक अधूरा रहेगा,
जब तक पाली और प्राकृत का उससे सम्बन्ध न हो; परन्तु मैं बहुत चेष्टा करके
भी सहायता प्राप्त न कर सका, क्योंकि सुनता हूँ कि वह अनाथालय भी टूट
गया।'
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