उपन्यास >> कंकाल कंकालजयशंकर प्रसाद
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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
यमुना
ने बैग से एक छोटी-सी चाँदी की लुटिया निकाली, जिसके साथ पतली रंगीन डोरी
लगी थी। वह कुरैया के झुरमुट के दूसरी ओर चली गई। विजय चुपचाप सोचने लगा;
और कुछ नहीं, केवल यमुना के स्वच्छ कपोलों पर गुलेनार रंग की छाप। उन्मत्त
हृदय-किशोर हृदय स्वप्न देखने लगा-ताम्बूल राग-रंजित, चुंबन अंकित कपोलों
का! वह पागल हो उठा।
यमुना पानी लेकर आयी, बैग
से मिठाई निकालकर
विजय के सामने रख दी। सीधे लड़के की तरह विजय ने जलपान किया, तब पूछा,
'पहाड़ी के ऊपर ही तुम्हें जल मिला, यमुना?'
'यहीं तो, पास ही एक
कुण्ड है।'
'चलो तुम दिखला दो।'
दोनों
कुरैये के झुरमुट की ओट में चले। वहाँ सचमुच एक चौकोर पत्थर का कुण्ड था,
उसमें जल लबालब भरा था। यमुना ने कहा, 'मुझसे यही एक टंडे ने कहा है कि यह
कुण्डा जाड़ा, गर्मी, बरसात सब दिनों में बराबर भरा रहता है; जितने आदमी
चाहें इसमें जल पियें, खाली नहीं होता। यह देवी का चमत्कार है। इसी में
विंध्यवासिनी देवी से कम इन पहाड़ी झीलों की देवी का मान नहीं है। बहुत
दूर से लोग यहाँ आते हैं।'
'यमुना, है बड़े आश्चर्य
की बात!
पहाड़ी के इतने ऊपर भी यह जल कुण्ड सचमुच अद्भुत है; परन्तु मैंने और भी
ऐसा कुण्ड देखा है, जिसमें कितने ही जल पियें, वह भरा ही रहता है!'
'सचमुच! कहाँ पर विजय
बाबू?'
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