उपन्यास >> कंकाल कंकालजयशंकर प्रसाद
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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
'और शीत, वर्षा-निवारण के
योग्य साधारण गृह बनवा देने का भार मैं लेता हूँ मंगल!' निरंजन ने कहा।
'मंगल! मैं तुम्हारी इस
सफलता पर बधाई देता हूँ।' हँसते हुए विजय ने कहा, 'कल मैं तुम्हारे ऋषिकुल
में आऊँगा।'
निरंजन और किशोरी ने कहा,
'हम लोग भी।'
मंगल कृतज्ञता से लद गया।
प्रणाम करके चला गया।
सबका
मन इस घटना से हल्का था; पर यमुना अपने भारी हृदय से बार-बार यही पूछती
थी-इन लोगों ने मंगल को जलपान करने तक के लिए न पूछा, इसका कारण क्या उसका
प्रार्थी होकर आना है?
यमुना कुछ अनमनी रहने
लगी। किशोरी से यह
बात छिपी न रही। घण्टी प्रायः इन्हीं लोगों के पास रहती। एक दिन किशोरी ने
कहा, 'विजय, हम लोगों को ब्रज आये बहुत दिन हो गये, अब घर चलना चाहिए। हो
सके तो ब्रज की परिक्रमा भी कर लें।'
विजय ने कहा, 'मैं नहीं
जाऊँगा।'
'तू सब बातों में आड़े आ
जाता है।'
'वह
कोई आवश्यक बात नहीं कि मैं भी पुण्य-संचय करूँ।' विरक्त होकर विजय ने
कहा, 'यदि इच्छा हो तो आप चली जा सकती हैं, मैं तब तक यहीं बैठा रहूँगा।'
'तो क्या तू यहाँ अकेला
रहेगा?'
'नहीं, मंगल के आश्रम में
जा रहूँगा। वहाँ मकान बन रहा है, उसे भी देखूँगा, कुछ सहायता भी करूँगा और
मन भी बहलेगा।'
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