उपन्यास >> कंकाल कंकालजयशंकर प्रसाद
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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
'वह आप ही दरिद्र है, तू
उसके यहाँ जाकर उसे और भी दुख देगा।'
'तो मैं क्या उसके सिर पर
रहूँगा।'
'यमुना! तू चलेगी?'
'फिर विजय बाबू को
खिलावेगा कौन बहू जी, मैं तो चलने के लिए प्रस्तुत हूँ।'
किशोरी
मन-ही-मन हँसी थी, प्रसन्न भी हुई और बोली, 'अच्छी बात है। तो मैं
परिक्रमा कर आऊँ, क्योंकि होली देखकर अवश्य घर लौट चलना है।'
निरंजन और किशोरी
परिक्रमा करने चले। एक दासी और जमादार साथ गया।
वृंदावन
में यमुना और विजय अकेले रहे। केवल घण्टी कभी-कभी आकर हँसी की हलचल मचा
देती। विजय कभी-कभी दूर यमुना के किनारे चला जाता और दिन-दिन भर पर लौटता।
अकेली यमुना उस हँसोड़ के व्यंग्य से जर्जरित हो जाती। घण्टी परिहास करने
में बड़ी निर्दय थी।
एक दिन दोपहर की कड़ी धूप
थी। सेठजी के
मन्दिर में कोई झाँकी थी। घण्टी आई और यमुना को दर्शन के लिए पकड़ ले गयी।
दर्शन से लौटते हुए यमुना ने देखा, एक पाँच-सात वृक्षों का झुरमुट और घनी
छाया, उसने समझा कोई देवालय है। वह छाया के लालच से टूटी हुई दीवार लाँघकर
भीतर चली गयी। देखा तो अवाक् रह गयी-मंगल कच्ची मिट्टी का गारा बना रहा
है, लड़के ईंटें ढो रहे हैं, दो राज उस मकान की जोड़ाई कर रहे हैं।
परिश्रम से मुँह लाल था। पसीना बह रहा था। मंगल की सुकुमार देह विवश थी।
वह ठिठककर खड़ी हो गयी। घण्टी ने उसे धक्का देते हुए कहा, 'चल यमुना, यह
तो ब्रह्मचारी है, डर काहे का!' फिर ठठाकर हँस पड़ी।
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