उपन्यास >> कुसम कुमारी कुसम कुमारीदेवकीनन्दन खत्री
|
1 पाठकों को प्रिय 266 पाठक हैं |
रहस्य और रोमांच से भरपूर कहानी
तारा–बहुत खूब, मैं चलने को तैयार हूं, मगर यह औरत...?
बीरसेन–इसे भी मेरे साथ चलना होगा! (औरत की तरफ देखकर) चल आगे बढ़!
कालिन्दी–मैं तुम्हारे साथ किले में क्यों जाऊं?
बीरसेन–इसका जवाब मैं कुछ भी न दूंगा।
कालिन्दी–(अपने साथी का तरफ देखकर) क्या तुम इसीलिए मेरे साथ आए हो?
आदमी–तो क्या मैं अपनी जान देने के लिए तुम्हारे साथ आया हूं? ये यहां के मालिक हैं, मैं इनके इलाके में रहता हूं इसलिए जो ये हुक्म देंगे वही मैं करूंगा।
बीरसेन–(कालिन्दी से) तू अपने को किसी तरह छिपा नहीं सकती, मैं खूब पहचानता हूं कि तू कालिन्दी है। वही कालिन्दी जिसने अपने कुल में दाग लगाया और वही कालिन्दी जिसने अपने मालिक के साथ नमकहारामी की। खैर, तिस पर भी मैं तुझे छोड़ देता हूं और हुक्म देता हूं कि जहां तेरा जी चाहे चली जा, मैं देखना चाहता हूं कि ईश्वर तेरे पापों की तुझे क्या सजा देता है। (उसके साथी की तरफ देखकर) देर मत कर और मेरे आगे-आगे चल!
इस समय साईस को तो सिवाय भागने के और कुछ न सूझा–वह अपनी जान लेकर एकदम वहां से भागा!
बीरसेन ने भी इसकी कुछ परवाह न की और उस आदमी को फिर अपने आगे-आगे चलने के लिए कहा।
आदमी–अच्छा एक घोड़े पर आप सवार हो लीजिए और दूसरे पर मैं सवार होकर आपके साथ चलता हूं।
बीरसेन–नहीं तुझे पैदल ही चलना होगा।
आदमी–एक तो मैं बीमार हूं दूसरे बहुत दूर से पैदल आने के कारण थक गया हूं।
बीरसेन–(क्रोध से) चलता है या बातें बनाता है?
आदमी–(घोड़े की तरफ बढ़कर) पैदल तो मैं नहीं चल सकता।
|